सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य ।
इति षण्णां खण्डानां ग्रंथसहस्रैद्रर्विसप्तत्या ॥१८१॥
प्राकृतसंस्कृतभाषामिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्यां ।
जयधवलां च कषायप्राभृतके चतृसृणां विभक्तीनां ॥१८२॥
विंशति सहस्त्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् ।
यातस्तत: पुनस्तच्छिष्यो जयसेनगुरुनामा ॥१८३॥
तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रै: समापितवान् ।
जयधवलैवं षष्ठिसहस्त्रसदग्रंथोऽभवट्टीका ॥१८४॥
एवं श्रुतावतारो निरूपित: श्रीन्द्रनन्दियतिपतिना ।
श्रुतपंचम्यामृषिभिव्र्याख्येयो भव्यलोकेभ्य: ॥१८५॥
यत्किंचिदत्र लिखितं समयविरूद्धं मयाऽल्पबोधेन ।
अपनीय तदागमतत्त्ववेदिन: शोधयन्तूच्चै: ॥१८६॥
श्लोकद्वयेन वृत्तेनैकेनाशीतिशतमितार्याभि: ।
सप्तोत्तरद्विशत्यां ग्रंथेनायं परिसमाप्त: ॥१८७॥
श्लोकद्वयेन वृत्तेनैकैन चतुराशीतिशत मितार्याभि: ।
सप्ताशीति च शतेन ग्रन्थेनायं परिसमाप्तो ॥१८७॥
अन्वयार्थ : और फिर छहों खंडों पर ७२००० श्लोकों में संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्र धवल नाम की टीका बनाई और फिर कषायप्राभृत की चारों विभक्तियों पर जयधवल नाम की २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गलोक को पधारे। उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्री जयसेन गुरू ने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीका को पूर्ण किया, जयधवल टीका सब मिलकर ६० हजार श्लोकों में पूर्ण हुई। इस प्रकार से श्री इंद्रनन्दि यतिपति ने भव्यजनों के लिये श्रुतपंचमी के दिन ऋषियों द्वारा व्याख्यान करने योग्य इस श्रुतावतार का निरूपण किया। इसमें यदि मुझ अल्पबुद्धि ने आगम के विरूद्ध कुछ लिखा हो तो उसे आगम तत्त्व जानने वाले पुरुषों को संशोधन कर लेना चाहिए। इस प्रकार दो अनुष्टुप्, एक शार्दूलवृत्त और १८० आर्यावृत्तों के द्वारा २०७ श्लोक संख्या से यह ग्रंथ पूर्ण किया है ॥१८१-१८७॥