तेण य कयं विचित्तं दंसणरूवं संजुत्तिसंकलियं ।
तम्हा इयराणं पुण समए तं हाणिबिड्ढिगयं ॥4॥
तेन च कृतं विचित्रं दर्शनरूपं संयुक्तिसंकलितम् ।
तस्मादितराणां पुनः समये तद्धानिवृद्धिगतम ॥४॥
अन्वयार्थ : उसने एक विचित्र दर्शन या मत ऐसे ढंग से बनाया कि वह आगे चलकर उससे भिन्न-भिन्न मत प्रवर्तकों के समयों में हानिवृद्धि को प्राप्त होता रहा । अर्थात्‌ उसी के सिद्धान्त थोडे बहुत परिवर्तित होकर आगे के अनेक मतों के रूप में प्रकट होते रहे ।