रूसउ तूसउ लोओ सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स ।
किं जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिंदेण ॥51॥
रुष्यतु तुष्यतु लोकः सत्यमाख्यातकस्य साधो: ।
किं यूकाभयेन शाटी विवर्जितव्या नरेन्द्रेण ॥५१॥
अन्वयार्थ : सत्य कहनेवाले साधु से चाहे कोई रुष्ट हो और चाहे सन्तुष्ट हो, उसे इसकी परवा नहीं । क्या राजा को जुओं के भय से वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ?