+ ग्रन्थकर्ता का अंतिम वक्तव्य -
पुव्वायरियकयाइं गाहाइं संचिऊण एयत्थ ।
सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संबसंतेण ॥49॥
रइओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए ।
सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥50॥
पूर्वाचार्यक्रता गाथा: संचयित्वा एकत्र ।
श्रीदेवसेनगणिना धारायां संवसता ॥४९॥
रचितो दर्शनसारो हारो भव्यानां नवशते नवके ।
श्रीपार्थनाथगेहे सुविशुद्धे माघशुद्धदशम्याम् ॥५०॥
अन्वयार्थ : श्रीदेवसेन गणि ने माघ सुदी १० वि. संवत्‌ ९०९ को धारानगरी में निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर में पूर्वाचार्यों की बनाई हुई गाथाओं को एकत्र करके यह दर्शनसार नाम का ग्रन्थ बनाया, जो भव्य-जीवों के हृदय में हार के समान शोभा देगा ।