विशेष :
सांतर / निरन्तर बंधी प्रकृतियाँ |
निरन्तर बंध |
सांतर बंध |
सांतर / निरन्तर बँधी |
54 = ४७ ध्रुव-बंधी (ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ९, अंतराय ५, मिथ्यात्व, कषाय १६, भय, जुगुप्सा, शरीर २ [तेजस, कार्माण], अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्ण-चतुष्क) + ७ (तीर्थंकर, आहारक-द्विक, आयु ४) |
34 (नरक-द्विक, जाति-चतुष्क, ५ संहनन [वज्रवृषभनाराच बिना], ५ संस्थान [समचतुरस्र बिना], अप्रशस्त-विहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर-दशक, असाता-वेदनीय, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद, अरति, शोक) |
32 (देव-द्विक, मनुष्य-द्विक, तिर्यञ्च-द्विक, औदारिक-द्विक, वेक्रियिक-द्विक, प्रशस्त-विहायोगति, वज्रवृषभनाराच संहनन, परघात, उच्छ्वास, समचतुरस्र-संस्थान, पंचेंद्रिय, त्रस-दशक, साता-वेदनीय, हास्य, रति, पुरुष-वेद, गोत्र-द्विक) |
जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अंतर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है, वह निरंतर-बंधी प्रकृति है। जिस प्रकृति का कालक्षय से बंध-व्युच्छेद संभव है वह सांतरबंधी प्रकृति है।
अन्य गति का जहाँ बंध पाइये तहां तौ देवगति सप्रतिपक्षी है सो तहाँ कोई समय देव गति का बंध होई, कोइ समय अन्य गति का बंध होई तातै सांतरबंधी है। जहाँ अन्य गति का बंध नाहीं केवल देवगति का बंध है तहाँ देवगति निष्प्रतिपक्षी है सो तहाँ समय समय प्रति देवगति का बंध पाइए तातै निरंतर-बंधी है। तातै देवगति उभयबंधी है। |
उभय बंधी प्रकृतियों में निरंतरता संबंधी उदाहरण |
मूल |
प्रकृति |
निरंतर बंध के स्थान के उदाहरण |
वेदनीय |
साता वेदनीय |
छठे गुणस्थान से ऊपर |
मोहनीय |
पुरुष वेद |
पद्म शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच मनुष्य 1-2 गुणस्थान तक; 3 से 9 गुणस्थान के सवेद भाग तक |
हास्य, रति |
7 से 8 गुणस्थान के बीच |
नाम |
तिर्यंचगति गति / गत्यानुपूर्वी |
तेज, वात, काय, सप्तम पृथ्वी का मिथ्यादृष्टि नारकी, तेज, वात काय से उत्पन्न हुए, निवृत्यपर्याप्त जीव या अन्य यथायोग्य मार्गणागत जीव |
मनुष्य गति / गत्यानुपूर्वी |
सम्यगदृष्टि देव / नारकी, मिथ्यादृष्टि आनतादि देव, आनतादि से आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य पर्याप्त व निवृत्यपर्याप्त आदि कोई जीव। |
देव गति / गत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर / अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय |
भोग भूमिया, तथा सासादन से ऊपर कर्मभूमिज |
पंचेंद्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक, त्रस, बादर, पर्याप्त |
सनत्कुमारादि देव, नारकी, भोगभूमिज, सासादन और उससे आगे के जीव |
औदारिक शरीर |
सम्यगदृष्टि देव / नारकी; मिथ्यादृष्टि सनत्कुमारादि देव, नारकी व वहाँ से आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त जीव। तेज, वात काय। |
औदारिक अंगोपांग |
सम्यगदृष्टि देव / नारकी; मिथ्यादृष्टि सनत्कुमारादि देव, नारकी व वहाँ से आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त जीव। |
वज्रऋषभनाराच संहनन |
सम्यगदृष्टि देव / नारकी |
स्थिर, शुभ |
7 से 8 गुणस्थान के बीच |
यश:कीर्ति |
7 से 10 गुणस्थान से के बीच |
गोत्र |
उच्च गोत्र |
पद्म / शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच मनुष्य 1-2 गुणस्थान, सम्यकत्वी, भोग-भूमि |
नीच गोत्र |
तेज, वात, काय, सप्तम पृथ्वी का मिथ्यादृष्टि नारकी, तेज, वात काय से उत्पन्न हुए, निवृत्यपर्याप्त जीव या अन्य यथायोग्य मार्गणागत जीव |
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