+ 14 गुणस्थान -
14 गुणस्थान

  विशेष 

विशेष :

गुणस्थान : दर्शनमोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर, उत्पन्न होनेवाले जिन भावों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान इस संज्ञा से निर्देश किया है ।

  1. मिथ्यात्व,
  2. सासादन,
  3. मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व),
  4. अविरतसम्यक्त्व,
  5. देशविरत,
  6. प्रमत्तविरत,
  7. अप्रमत्तविरत,
  8. अपूर्वकरणसंयत,
  9. अनिवृत्तिकरणसंयत,
  10. सूक्ष्मसाम्परायसंयत,
  11. उपशान्तमोह,
  12. क्षीणमोह,
  13. सयोगिकेवलिजिन और
  14. अयोगिकेवली
ये क्रम से चौदह गुणस्थान होते हैं । तथा सिद्धों को गुणस्थानातीत जानना चाहिए ।

मिथ्यात्व : मिथ्यात्व कर्म को वेदन (अनुभव) करनेवाला जीव विपरीतश्रद्धानी होता है । उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वर-युक्त मनुष्य को मधुर (मीठा) रस भी नहीं रुचता है । जो सात तत्वों या नव पदार्थों का अश्रद्धान होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । वह तीन प्रकार का है -- संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । मिथ्याष्टि जीव जिन-उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है । प्रत्युत अन्य से उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव (पदार्थ के अयथार्थ स्वरूप) का श्रद्धान करता है ।

सासादन : सम्यक्त्वरूप रत्न-पर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमि के समभिमुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नामवाला जानना चाहिए ।

सम्यग्मिथ्यात्व : जिस प्रकार व्यामिश्र (अच्छी तरह से मिला हुआ) दही और गुड़ पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए । यह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का सम्मिश्रण उन दोनों के स्वतंत्र आस्वाद से एक भिन्न-जातीय रूप को धारण कर लेता है, अतएव उसको अपेक्षा से मिश्र-भाव को एक स्वतन्त्र गुणस्थान माना गया है ।

अविरत-सम्यक्त्व : जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दृष्टि जीव जिन-उपदिष्ट प्रवचन का तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् ( सद्भाव को) नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग (उपदेश या आदेश) से असद्भाव का भी श्रद्धान कर लेता है ।

देशविरत : जो जीव एकमात्र जिन-भगवान् में ही मति (श्रद्धा) को रखता है, तथा त्रस-जीवों के घात से विरत है और इन्द्रिय-विषयों से एवं स्थावर जीवों के घात से विरक्त नहीं है, वह जीव प्रति-समय विरताविरत है (अपने गुणस्थान के काल के भीतर हर-क्षण विरत और अविरत इन दोनों संज्ञाओं को एक साथ एक समय में धारण करता है)

प्रमत्तसंयत : जो पुरुष सकल मूलगुणों से और शील (उत्तरगुणों) से सहित है, अतएव महाव्रती है; तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद में रहता है, अतएव चित्रल-आचरणी है; वह प्रमत्तसंयत कहलाता है। चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, अवनिपालकथा) चार कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) पाँच इन्द्रिय ( स्पर्शन, रसना, नासिका, नयन, श्रवण ) एक निद्रा और एक प्रणय (प्रेम या स्नेह-सम्बन्ध ) ये पन्द्रह (4+4+5+1+1 = 15 ) प्रमाद होते हैं ।

अप्रमत्तसंयत : जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित है, महाव्रत, मूलगुण और और उत्तरगुणों की माला से मंडित है, स्व और पर के ज्ञान से युक्त है, और कषायों का अनुपशमक या अक्षपक होते हुए भी ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है ।

अपूर्वकरण : इस गुणस्थान में, भिन्न समयवर्ती जीवों में करण अर्थात् परिणामों की अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किन्तु एक समयवर्ती जीवों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं । इस गुणस्थान में यतः विभिन्न-समय-स्थित जीवों के पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं; अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकार के अपूर्वकरण परिणामों में स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या उपशमन करने में उद्यत होते हैं, ऐसा गलित-तिमिर अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकार से रहित वीतरागी जिनों ने कहा है ।

अनिवृत्तिकरण : इस गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त-प्रमित काल में से विवक्षित किसी एक समय में अवस्थित जीव यतः संस्थान (शरीर का आकार) आदि की अपेक्षा जिसप्रकार निवृत्ति या भेद को प्राप्त होते हैं, उस प्रकार परिणामों की अपेक्षा परस्पर निवृत्ति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। अनिवृत्तिकरण गणस्थानवर्ती जीवों के प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अति विमल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्मरूप वन को सर्वथा जला डालते हैं ।

सूक्ष्मसाम्पराय : जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतर से सूक्ष्म रक्त (अत्यन्त कम लालिमा) वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म राग-सहित जीव को सुक्ष्मकषाय या सूक्ष्मसाम्पराय जानना चाहिए। लोभाणु (सूक्ष्म लोभ) में स्थित सूक्ष्मसाम्परायसंयत पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक के अनुभाग से अनन्तगुणितहीन अनुभागवाला होता है ।

उपशान्तकषाय : कतकफल (निर्मली) से सहित जल, अथवा शरद् काल में सरोवर का पानी जिस प्रकार निर्मल होता है, उसीप्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया है, ऐसा उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती जीव अत्यन्त निर्मल परिणामवाला होता है ।

क्षीणकषाय : मोहकर्म के निःशेष क्षीण हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के विमल भाजन में रक्खे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रन्थ साधु को वीतरागियों ने क्षीणकषायसंयत कहा है । जिसप्रकार निर्मली, फिटकरी आदि से स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणि के भाजन में नितरा लेने पर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषायसंयत को भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणामवाला जानना चाहिये ।

सयोगिकेवली : केवलज्ञानरूप दिवाकर (सूर्य) की किरणों के समूह से जिनका अज्ञानान्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है, जिन्होंने नौ केवल-लब्धियों के उद्गम से 'परमात्मा' संज्ञा प्राप्त की है और जो पर-सहाय से रहित केवलज्ञान-दर्शन से सहित हैं, ऐसे योग-युक्त केवली भगवान् को अनादिनिधन आर्ष में सयोगिजिन कहा है। केवली भगवान् के यतः राग-द्वेष नहीं होता, इस कारण से उनके नवीन कर्म का बन्ध भी नहीं होता है। जिस प्रकार सूखी भित्ती पर आकर के लगी हुई बालुका तत्क्षण झड़ जाती है, इसीप्रकार योग के सद्भाव से आया हुआ कर्म भी कषाय के न होने से तत्क्षण झड़ जाता है ।

अयोगिकेवली : जो जीव शैलेशी अवस्था (शैल / पर्वत के समान स्थिर परिणाम; अठारह हजार भेदवाले शील के स्वामित्वरूप शीलेशत्व) को प्राप्त हुए हैं; जिनका निःशेष आस्रव सर्वथा रुक गया है, जो कर्म-रज से विप्रमुक्त हैं और योग से रहित हो चुके हैं, ऐसे केवली भगवान् को अयोगिकेवली कहते है ।

गुणस्थानातीत सिद्ध : जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ।

पंचसंग्रह -- गाथा 3 से 31 तक