विशेष :
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उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण |
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संक्रमण |
कर्म-प्रकृतियाँ |
संख्या |
उद्वेलन |
विध्यात |
अध:प्रवृत्त |
गुणसंक्रमण |
सर्वसंक्रमण |
आहारक-द्विक, वैक्रियक-द्विक, नरक-द्विक, मनुष्य-द्विक, देवद्विक, मिश्र प्रकृति, उच्चगोत्र |
12 |
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✓ |
✓ |
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सम्यक्त्व मोहनीय |
1 |
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X |
✓ |
✓ |
✓ |
स्त्यानत्रिक, (संज्वलन कषाय के बिना) 12 कषाय, नपुंसक-वेद, स्त्री-वेद, अरति, शोक, और तिर्यक् एकादश (तिर्यञ्च-द्विक, जाति-चतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, आतप, उद्योत, साधारण) |
30 |
X |
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✓ |
✓ |
✓ |
मिथ्यात्व |
1 |
X |
✓ |
X |
✓ |
✓ |
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा |
4 |
X |
X |
✓ |
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असाता-वेदनीय, अप्रशस्त-विहायोगति, 10 (पहले के बिना पाँच संहनन व पाँच संस्थान), नीचगोत्र, अपर्याप्त और अस्थिर, अशुभ, सुभग, दुस्वर, अनादेय, अयश्स्कीर्ति |
20 |
X |
✓ |
✓ |
✓ |
X |
संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद |
4 |
X |
X |
✓ |
X |
✓ |
निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात |
7 |
X |
X |
✓ |
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X |
औदारिक-द्विक, वज्रऋषभनाराच-संहनन, तीर्थंकर |
4 |
X |
✓ |
✓ |
X |
X |
5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, पाँच अंतराय, साता-वेदनीय, संज्वलन-लोभ, पंचेंद्रिय, तेजस, कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, 4 वर्ण-चतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, 10 त्रस-दस, निर्माण |
49 |
X |
X |
✓ |
X |
X |
कुल प्रकृतियाँ (वर्ण चतुष्क को दो बार लिया है) |
132 |
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मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व व मिश्र मोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है |
मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व व मिश्र मोहनीय का द्विचरम कांडक पर्यंत उद्वेलन संक्रमण होता है |
विध्यात संक्रमण - बंध की व्युच्छित्ति होने पर असंयत से लेकर अप्रमत्तपर्यंत; तीर्थंकर प्रकृति का संक्रमण मिथ्यादृष्टि नरक में करता है |
अध:प्रवृत्त संक्रमण - प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी बंध व्युच्छित्ति पर्यंत । मिथ्यात्व प्रकृति के बिना 121 प्रकृतियों का |
गुण संक्रमण - अप्रमत्त से आगे उपशांत कषाय पर्यंत बंध रहित अप्रशस्त प्रकृतियों का । उद्वेलन प्रकृतियों का अंत के कांडक में नियम से गुण संक्रमण होता है |
सर्व संक्रमण - अंतिम कांडक की उपांत्य फालिपर्यंत गुणसंक्रमण और अंतिम फालि में |
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