| तिर्यञ्च |
स्थावर |
स्थान |
21 (20 +तिर्यञ्चानुपूर्वी) |
24 (20 + औदारिक-शरीर + हुंडक-संस्थान + प्रत्येक/साधारण + उपघात) |
25/26 (24 + परघात [+आतप/उद्योत]) |
26/27 (25/26 + उच्छ्वास) |
-na- |
| भंग |
5 (यश [बा.,प.]; अयश [बा./सू.,प./अप.]) |
9 (यश [बा.,प्र.,प.]; अयश [बा./सू.,प./अप.,प्र./सा.]) |
9 = (1 यश [बा.,प्र.]) + 4 अयश [बा./सू.,प्र./सा.]) + (2 [यश/अयश] * 2 [आतप/उद्योत]) |
9 |
-na- |
| विकलत्रय |
स्थान |
21 (20 +तिर्यञ्चानुपूर्वी) |
26 (20 + 6 औदारिक-शरीर व अंगोपांग + हुंडक-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + सृपाटिका-संहनन) |
28/29 (26 + परघात + अप्र.विहायोगति [+उद्योत]) |
29/30 (28/29 + उच्छ्वास) |
30/31 (+दुस्वर) |
| भंग |
9 (यश / अयश [प./अप.] * 3 जाति) |
9 (यश / अयश [प./अप.] * 3 जाति) |
12 (यश/अयश * 3 जाति * 2) |
12 |
12 |
| संज्ञी-पंचेंद्रिय |
स्थान |
21 (20 +तिर्यञ्चानुपूर्वी) |
26 (20 + 6 औदारिक-शरीर व अंगोपांग + १-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + १-संहनन) |
28/29 (26 + परघात + विहायोगति [+उद्योत]) |
29/30 (28/29 + उच्छ्वास) |
30/31 (+स्वर) |
| भंग |
9 (प. 8 [सुभग/दुर्भग, आदेय/अनादेय, यश/अयश] + अप.11) |
289 (प. 288 [8 * 6-संहनन * 6-संस्थान] + अप. 1) |
1152 (288 * 2 विहायोगति * 2) |
1152 (288 * 2 * 2) |
2304 (576 * 2 स्वर * 2) |
| कुल भंग |
23 |
307 |
1173 |
1173 |
2316 |
4992 |
| सूक्ष्म / साधारण / अपर्याप्त के अप्रशस्त की प्रकृतियों का ही उदय होने से एक ही भंग है |
|
| एकेन्द्रियों में हुंडक-संस्थान, दुर्भग, अनादेय का की उदय है । यहाँ संहनन / विहायोगति / स्वर नहीं है । |
| देव |
स्थान |
21 (20 +देवानुपूर्वी) |
25 (20 + वैक्रियिक-शरीर व अंगोपांग + समचतुरस्र-संस्थान + प्रत्येक + उपघात) |
27 (25 + परघात + प्रशस्त-विहायोगति) |
28 (27 + उच्छ्वास) |
29 (28 + सुस्वर) |
| भंग |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
5 |
| देवों में समचतुरस्र-संस्थान, प्रशस्त-विहायोगति, सुभग, आदेय, सुस्वर, यशस्कीर्ति का ही उदय है । यहाँ संहनन नहीं है । |
|
| नारकी |
स्थान |
21 (20 +नरकानुपूर्वी) |
25 (20 + वैक्रियिक-शरीर व अंगोपांग + हुंडक-संस्थान + प्रत्येक + उपघात) |
27 (25 + परघात + अप्रशस्त-विहायोगति) |
28 (27 + उच्छ्वास) |
29 (28 + दुस्वर) |
| भंग |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
5 |
| नरकों में हुंडक-संस्थान, अप्रशस्त-विहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुस्वर, अयशस्कीर्ति का ही उदय है । यहाँ संहनन नहीं है । |
|
| मनुष्य |
अपर्याप्त |
स्थान |
21 (20 +मनुष्यानुपूर्वी) |
26 (20 + औदारिक-शरीर व अंगोपांग + हुंडक-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + सृपाटिका-संहनन) |
-na- |
-na- |
-na- |
| भंग |
1 |
1 |
-na- |
-na- |
-na- |
| सामान्य-पर्याप्त |
स्थान |
21 (20 +मनुष्यानुपूर्वी) |
26 (20 + औदारिक-शरीर व अंगोपांग + १-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + १-संहनन) |
28 (26 + परघात + विहायोगति) |
29 (+उच्छ्वास) |
30 (29 + स्वर) |
| भंग |
8 (सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश-अयश) |
288 (8 * 6-संहनन * 6-संस्थान) |
576 (288 * 2 विहायोगति) |
576 |
1152 (576 * 2 स्वर) |
| आहारक-शरीरी |
स्थान |
-na- |
25 (20 + आहारक-शरीर व अंगोपांग + समचतुरस्र-संस्थान + प्रत्येक + उपघात) |
27 (25 + परघात + प्रशस्त-विहायोगति) |
28 (27 + उच्छ्वास) |
29 (28 + सुस्वर) |
| भंग |
-na- |
1 |
1 |
1 |
1 |
| सामान्य-केवली |
स्थान |
20 |
26 (20 + औदारिक-शरीर व अंगोपांग + १-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + वज्रऋषभनाराच-संहनन) पुनरुक्त |
28 (26 + परघात + विहायोगति) पुनरुक्त |
29 (28 + उच्छ्वास) पुनरुक्त |
30 (29 + स्वर) पुनरुक्त |
| भंग |
1 |
6 (6-संस्थान) |
12 (6 * 2 विहायोगति) |
12 |
24 (12 * 2 स्वर) |
| तीर्थंकर-केवली |
स्थान |
21 (20 + तीर्थंकर) |
27 (21 + औदारिक-शरीर व अंगोपांग + समचतुरस्र-संस्थान + प्रत्येक + उपघात + वज्रऋषभ-नाराच-संहनन) |
29 (27+ परघात + प्रशस्त-विहायोगति) |
30 (29 + उच्छ्वास) |
31 (30 + सुस्वर) |
| भंग |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
| सामान्य आयोग-केवली |
स्थान |
-na- |
-na- |
-na- |
-na- |
8 |
| भंग |
-na- |
-na- |
-na- |
-na- |
1 |
| तीर्थंकर आयोग-केवली |
स्थान |
-na- |
-na- |
-na- |
-na- |
9 (8 + तीर्थंकर) |
| भंग |
-na- |
-na- |
-na- |
-na- |
1 |
| कुल भंग |
11 |
291 |
578 |
578 |
1156 |
2668 |
| सामान्य केवलियों में वज्र-ऋषभनाराच संहनन, सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति का ही उदय है । |
|
| सामान्य आयोग केवलियों में मनुष्य-गति, पंचेंद्रिय-जाति, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, त्रस, बादर, पर्याप्त का ही उदय है । |
| तीर्थंकरों में समचतुरस्र-संस्थान, वज्र-ऋषभनाराच संहनन, प्रशस्त-विहायोगति, सुभग, आदेय, सुस्वर, यशस्कीर्ति का ही उदय है । |
| आहारक शरीरियों में समचतुरस्र-संस्थान, प्रशस्त-विहायोगति, सुभग, आदेय, सुस्वर, यशस्कीर्ति का ही उदय है । यहाँ संहनन नहीं है । |
| सामान्य केवली का कार्मण को छोड़कर बाकी के समयों के भंग (54) पुनरुक्त हैं ?? |
| ध्रुवोदयी 12 + युगल 8 = 20 प्रकृतियों का उदय सामन्य (ऊपर सभी को) है |
| पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा 96 से 190 |