सकल-करम-खल-दलन,
कमठ-सठ-पवन कनक-नग ।
धवल परम-पद-रमन,
जगत-जन-अमल-कमल-खग ॥
परमत-जलधर-पवन,
सजल-घन-सम-तन समकर ।
पर-अघ-रजहर जलद,
सकल-जन-नत-भव-भय-हर ॥
जमदलन नरकपद-छयकरन,
अगम अतट भवजलतरन ।
वर-सबल-मदन-वन-हरदहन,
जय जय परम अभयकरन ॥२॥
अन्वयार्थ : जो सम्पूर्ण दुष्टकर्मों को नष्ट करनेवाले हैं, कमठ की वायु के समक्ष मेरु के समान हैं , निर्विकार सिद्धपद में रमण करते हैं, संसारी जीवोंरूप कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य के समान हैं, मिथ्यामतरूपी मेघों को उड़ा देने के लिये प्रचण्ड वायुरूप हैं, जिनका शरीर पानी से भरे हुए मेघ के समान नील-वर्ण है, जो जीवों को समता देनेवाले हैं, अशुभ कर्मों की धूल धोने के लिये मेघ के समान हैं, सम्पूर्ण जीवों के द्वारा वन्दनीय हैं, जन्म-मरण का भय हरनेवाले हैं, जिन्होंने मृत्यु को जीता है, जो नरक गति से बचानेवाले हैं, जो बड़े और गम्भीर संसार सागर से तारनेवाले हैं, अत्यन्त बलवान कामदेव के वन को जलाने के लिये रुद्र की अग्नि के समान हैं, जो जीवों को बिलकुल निडर बनानेवाले हैं; उन की जय हो !! ॥२॥
कनक-नग = सुमेरु; परमत=जैनमत के सिवाय दूसरे सब मिथ्यामत; नत=वंदनीय ; हरदहन=रुद्र की अग्नि