(सवैया एकत्रीसा)
जिन्हि के वचन उर धारत जुगल नाग,
भए धरनिंद पदुमावति पलकमैं ।
जाकी नाममहिमासौं कुधातु कनक करै,
पारस पखान नामी भयौ हैखलक मैं ॥
जिन्ह की जनमपुरी-नाम के प्रभाव हम,
अपनौ स्वरुप लख्यौ भानुसौ भलक मैं ।
तेई प्रभु पारस महारस के दाता अब,
दीजै मोहि साता द्रगलीला की ललक मैं ॥३॥
अन्वयार्थ : जिनकी वाणी हृदय में धारण करके सांप का जोड़ा क्षणभर में धरणेन्द्र-पद्मावती हुआ, जिनके नाम के प्रताप से जगत में पत्थर भी पारस के नाम से प्रसिद्ध है जो लोहे को सोना बना देता है, जिनकी जन्मभूमि के नाम के प्रभाव से हमने अपना आत्मस्वरूप देखा है -- मानों सूर्य की ज्योति ही प्रगट हुई है; वे अनुभव-रस का स्वाद देनेवाले पार्श्वनाथ जिनराज अपनी प्यारी चितवन से (दृष्टि से) हमें शान्ति देवें ॥३॥
कुधातु=लोहा; पारस पखान=पारस पत्थर; खलक=जगत; भलक=प्रभा; महारस=अनुभव का स्वाद; साता=शान्ति