करम-भरम जग-तिमिर-हरन खग,
उरग-लखन-पगसिवमगदरसी ।
निरखत नयन भविक जल बरखत,
हरखत अमितभविकजन-सरसी ॥
मदन-कदन-जित परम-धरमहित,
सुमिरत भगति भगति सब डरसी ।
सजल-जलद-तन मुकुट सपत फन,
कमठ-दलनजिन नमत बनरसी ॥१॥
अन्वयार्थ : जो संसार में कर्म के भ्रमरूप अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य के समान हैं, जिनके चरण में सांप का चिह्न है, जो मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले हैं, जिनके दर्शन करने से भव्य-जीवों के नेत्रों से आनंद के आँसू बह निकलते हैं और अनेक भव्यरूपी सरोवर प्रसन्न हो जाते हैं, जिन्होंने कामदेव को युद्ध में हरा दिया है, जो उत्कृष्ट जेनधर्म के हितकारी हैं, जिनका स्मरण करने से भक्तजनों के सब डर दूर भागते हैं, जिनका शरीर पानी से भरे हुए मेघ के समान नीला है, जिनका मुकुट सात फण का है, जो कमठ के जीव को असुर पर्याय में परास्त करनेवाले हैं; ऐसे पार्श्वनाथ जिनराज को बनारसीदास जी नमस्कार करते हैं ॥१॥
खग = सूर्य ; कदन=युद्ध; सजल=पानी सहित; जलद = मेघ ; सपत=सात;