अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यथाग्निरिन्धनमस्तीन्धनमग्निरस्त्यग्नेरिन्धनमस्तीन्धनस्याग्निरस्ति, अग्नेरिन्धनं पूर्वमासीदिन्धन-स्याग्नि: पूर्वमासीत्, अग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यतीन्धनस्याग्नि: पुनर्भविष्यतीतीन्धन एवासद्भूताग्नि-विकल्पत्वेनाप्रतिबुद्ध: कश्चिल्लक्ष्येत, तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि, ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं, ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासद्- भूतात्मविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा । नाग्निरिन्धनमस्ति नेन्धनमग्निरस्त्यग्निरग्निरस्तीन्धनमिन्धनमस्ति नाग्नेरिन्धनमस्ति नेन्धनस्याग्नि- रस्त्यग्नेरग्निरस्तीन्धनस्येन्धनर्मिस्त, नाग्नेरिन्धनं पूर्वमासीन्नेन्धनस्याग्नि: पूर्वमासीदग्नेरग्नि: पूर्वमासी-दिन्धस्येन्धनं पूर्वमासीत्, नाग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यति नेन्धनस्याग्नि: पुनर्भविष्यत्यग्नेरग्नि: पुन-र्भविष्यतीन्धनस्येन्धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्निविकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्यहमहमस्म्येतदेतदस्ति न ममैतदस्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति, न ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीत्, न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात् ॥२०-२२॥ (कलश-मालिनी) त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेक: किल किलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥२२॥ जिसप्रकार कोई पुरुष इंधन और अग्नि को मिला हुआ देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि जो अग्नि है, वही इंधन है और जो इंधन है, वही अग्नि है; अग्नि का इंधन है और इंधन की अग्नि है; अग्नि का इंधन पहले था और इंधन की अग्नि पहले थी; अग्नि का इंधन भविष्य में होगा और इंधन की अग्नि भविष्य में होगी तो वह अज्ञानी है; क्योंकि इसप्रकार के विकल्पों से अज्ञानी पहिचाना जाता है । इसीप्रकार पर-द्रव्यों में - मैं ये पर-द्रव्य हूँ, ये पर-द्रव्य मुझरूप हैं; ये पर-द्रव्य मेरे हैं; मैं इन पर-द्रव्यों का हूँ; ये पहले मेरे थे, मैं पहले इनका था; ये भविष्य में मेरे होंगे और मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा - इसप्रकार के झूठे विकल्पों से अप्रतिबुद्ध अज्ञानी पहिचाना जाता है ।अग्नि है, वह इंधन नहीं है और इंधन है, वह अग्नि नहीं है; अग्नि है, वह अग्नि ही है और इंधन है, वह इंधन ही है । अग्नि का इंधन नहीं है और इंधन की अग्नि नहीं है; अग्नि की अग्नि है और इंधन का इंधन है । अग्नि का इंधन पहले नहीं था, इंधन की अग्नि पहले नहीं थी; अग्नि की अग्नि पहले थी, इंधन का इंधन पहले था, अग्नि का इंधन भविष्य में नहीं होगा और इंधन की अग्नि भविष्य में नहीं होगी; अग्नि की अग्नि ही भविष्य में होगी और इंधन का इंधन ही भविष्य में होगा । इसप्रकार जैसे किसी को अग्नि में ही सत्यार्थ अग्नि का विकल्प हो तो वह उसके प्रतिबुद्ध होने का लक्षण है । इसीप्रकार मैं - ये पर-द्रव्य नहीं हूँ और ये पर-द्रव्य मुझस्वरूप नहीं हैं; मैं तो मैं ही हूँ और पर-द्रव्य हैं, वे पर-द्रव्य ही हैं; मेरे ये पर-द्रव्य नहीं हैं और इन पर-द्रव्यों का मैं नहीं हूँ; मैं मेरा हूँ और पर-द्रव्य के पर-द्रव्य हैं; ये पर-द्रव्य पहले मेरे नहीं थे और इन पर-द्रव्यों का मैं पहले नहीं था; मेरा ही मैं पहले था और पर-द्रव्यों के पर-द्रव्य ही पहले थे । ये पर-द्रव्य भविष्य में मेरे नहीं होंगे और न मैं भविष्य में इनका होऊँगा; मैं भविष्य में अपना ही रहूँगा और ये पर-द्रव्य भविष्य में इनके ही रहेंगे । इसप्रकार जो व्यक्ति स्व-द्रव्य में ही आत्म-विकल्प करते हैं, स्व-द्रव्य को निज जानते-मानते हैं; वे ही प्रतिबुद्ध हैं, ज्ञानी हैं । ज्ञानी का यही लक्षण है और इन्हीं लक्षणों से ज्ञानी पहिचाना जाता है । (कलश--हरिगीत)
[जगत्] जगत् (जगत् के जीवों) ! [आजन्मलीढं मोहम्] अनादि संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को [इदानीं त्यजतु] अब तो छोड़ो और [रसिकानां रोचनं] रसिक-जनों को रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम्] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु] आस्वादन करो; क्योंकि [इह] इस लोक में [आत्मा] आत्मा [किल] वास्तव में [कथम् अपि] किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम्] अनात्मा (पर-द्रव्य) के साथ [क्व अपि काले] कदापि [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न] तादात्म्य-वृत्ति (एकत्व) को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः] आत्मा एक है (वह अन्य द्रव्य के साथ एकतारूप नहीं होता) ।
आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो ॥ तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं ॥२२॥ |
जयसेनाचार्य :
[अहमेदं एदमहं] 'मैं हूँ सो यह है, यह है सो मैं हूँ' इस प्रकार अहंकार भाव [अहमेदस्सेव होमि मम एदं] यह मेरा है और मैं इसका हूँ, इस प्रकार ममकारभाव [अण्णं जं परदव्वं] इसी प्रकार देह से भिन्न जो परद्रव्य हैं [सच्चित्तचित्तमिस्सं वा] वे सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार हैं । उनमें
जैसे कि कोई भी भोला प्राणी कहे कि तीनों कालों में अग्नि ही ईंधन है और ईंधन ही अग्नि है, ऐसा एकांत अभेदरूप से कहता है वैसे ही देह-रागादि पर-द्रव्य ही इस समय मैं हूँ, पहले भी मैं परद्रव्य-रागादिरूप था और आगे भी परद्रव्य रागादिरूप होऊंगा, ऐसा कहता है वह अज्ञानी बहिरात्मा है, किन्तु ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा जीव इससे विपरीत विचार वाला है । इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव का लक्षण जानकर निर्विकार स्वसंवेदन है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान में निमग्न होकर भावना करनी चाहिए । इसी बात को फिर दृढ़ करते हैं की जैसे कोई राजपुरुष भी राजा के शत्रुओं के साथ संसर्ग रखता है तो वह राजा का आराधक नहीं कहला सकता । उसी प्रकार परमात्मा की आराधना करने वाला पुरुष आत्मा के प्रतिपक्षभूत जो मिथ्यात्व व रागादिभाव हैं उन रूप परिणमन करने वाला होता है, तब वह परमात्मा का आराधक नहीं हो सकता, यह इसका निचोड़ है ॥२५-२७॥ इस प्रकार अप्रतिबुद्ध के लक्षण के कथन रूप में चतुर्थ स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं । |