अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
युगपदनेकविधस्य बंधनोपाधे: सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रो-पाश्रयोपरक्त: स्फटिकोपल इवात्यंततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाण: पुद्गलद्रव्यं ममेद-मित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीव: । अथायमेव प्रतिबोध्यते रे दुरात्मन् आत्मपंसन् जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्य-वहारित्वम् । दूरनिरस्तसमस्तसंदेहविपर्यासानध्यवसायेन विश्वैकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात् पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूति: किल घटेत्, तत्तु न कथंचनापि स्यात् । तथा हि यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत् द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयो: प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद विबुध्यस्व स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव ॥२३-२५॥ (कलश-२३) अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भव मूर्त्ते: पार्श्ववर्त्ती मुहूर्त् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥२३॥(कलश-२४) कांत्यैव स्नपयंति ये दशदिशो धाम्ना निरुंधंति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयो: साक्षात्क्षरंतोsमृतं वंद्यास्तेsष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वरा: सूरय: ॥२४॥ जिसप्रकार स्फेटक पाषाण में अनेकप्रकार के रंगों की निकटता के कारण अनेकरूपता दिखाई देती है, स्फेटक का निर्मलस्वभाव दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार एक ही साथ अनेकप्रकार के बंधन की उपाधि की अतिनिकटता से वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभाव-भावों के संयोगवश अपने स्वभावभाव के तिरोभूत हो जाने से, जिसकी भेद-ज्ञान-ज्योति पूर्णत: अस्त हो गई है और अज्ञान से विमोहित है हृदय जिसका - ऐसा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) जीव स्व-पर का भेद न करके उन अस्वभाव-भावों को अपना मानता हुआ पुद्गल-द्रव्य में अपनापन स्थापित करता है । ऐसे अज्ञानी-जीव को समझाते हुए आचार्य-देव कहते हैं कि हे दुरात्मन् ! घास और अनाज को परम-अविवेकपूर्वक एकसाथ खानेवाले हाथी के समान तू स्व और पर को मिलाकर एक देखने के इस स्वभाव को छोड़ ! छोड़ !! संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से सम्पूर्णत: रहित एवं विश्व की एकमात्र अद्वितीय ज्योति - ऐसे सर्वज्ञ के ज्ञान में जाना गया नित्य उपयोगलक्षण जीवद्रव्य पुद्गल कैसे हो गया, जो तू कहता है, अनुभव करता है कि पुद्गलद्रव्य मेरा है । यदि किसी भी प्रकार से जीवद्रव्य पुद्गल-द्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो; तभी 'नमक के पानी' के अनुभव की भाँति तेरी यह अनुभूति ठीक हो सकती है कि यह पुद्गल-द्रव्य मेरा है; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकार से बनता नहीं है । अब इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हैं । जिसप्रकार खारापन है लक्षण जिसका, ऐसा नमक पानीरूप होता दिखाई देता है और प्रवाहीपन है लक्षण जिसका, ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है; क्योंकि खारेपन और प्रवाहीपन में एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है, कोई बाधा नहीं है । किन्तु नित्य उपयोग-लक्षण-वाला जीव-द्रव्य पुद्गल-द्रव्य-रूप होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग-लक्षण-वाला पुद्गल-द्रव्य जीव-द्रव्यरूप होता हुआ दिखाई नहीं देता; क्योंकि प्रकाश और अन्धकार की भाँति उपयोग और अनुपयोग का एक ही साथ रहने में विरोध है । इसकारण जड़ और चेतन कभी एक नहीं हो सकते । इसलिए तू सर्वप्रकार प्रसन्न हो, अपने चित्त को उज्ज्वल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही 'यह मेरा है' - इसप्रकार अनुभव कर । (कलश-रोला)
[अयि] हे भाई ! [कथम् अपि] किसीप्रकार (महा कष्टसे) अथवा [मृत्वा] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन्] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव] इस शरीरादि मूर्त द्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर [अनुभव] अनुभव कर [अथ येन] कि जिससे [स्वं विलसन्तं] अपने आत्मा को विलासरूप, [पृथक्] सर्व परद्रव्यों से भिन्न [समालोक्य] देखकर [मूर्त्या साकम्] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गल-द्रव्य के साथ [एकत्वमोहम्] एकत्व के मोह को [झगिति त्यजसि ] तू शीघ्र ही छोड़ देगा ।
निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का । हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ॥ जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयं को तब शीघ्र ही । तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ॥२३॥ |
जयसेनाचार्य :
[अण्णाणमोहिदमदी] अज्ञान से मोहित हो रहीं है / बिगड़ रही है बुद्धि जिसकी ऐसा जीव [मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं] कहता है कि यह शरीरादि पुद्गल-द्रव्य मेरा है । कैसा है वह पुद्गल द्रव्य ? [बद्धमबद्धं च] बद्ध अर्थात् आत्मा से सम्बन्धित देह और अबद्ध देह से भिन्न पुत्र-कलत्रादि । [तहा जीवे बहुभावसंजुत्तो] उनमें यह संसारी जीव मिथ्यात्व-रागादिरूप विकारी भावों को लिये हुए है इसलिये उन देह-पुत्र-कलत्रादि पर-द्रव्य को मेरा है, इस प्रकार कहता है । यह पहला गाथा का अर्थ हुआ । आगे की गाथा में इसी अज्ञानी को समझाया जा रहा है कि हे दुरात्मन् ! [सव्वण्हुणाणदिट्ठो] सर्वज्ञ भगवान् के ज्ञान से देखा हुआ [जीवो] जीव नामा पदार्थ [उवओगलक्खणो णिच्चं] सब ही काल में मात्र ज्ञान और दर्शन उपयोग लक्षण वाला है फिर [कह सो पोग्गलदव्वीभूदो] वह पुद्गल-द्रव्य रूप कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता [जं भणसि मज्झमिणं] जिससे कि तू पुद्गल-द्रव्य मेरा है -- ऐसा कहता है । इस प्रकार दूसरी गाथा पूर्ण हुई । [जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो] यदि वह जीव पुद्गल-द्रव्य-रूप हो जाये तो [जीवत्तमागदं इदरं] शरीरादि पुद्गल-द्रव्य भी जीवपने को प्राप्त हो जाये [तो सक्को वत्तुं जे] तो तू फिर कह सकता है कि [मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं] यह पुद्गल-द्रव्य मेरा है, किन्तु ऐसा होता नहीं । तात्पर्य यह है कि जैसे वर्षा-काल में लवण पिघलकर जलरूप हो जाता है और ग्रीष्म-काल में वही जल घन होकर लवण हो जाता है, वैसे ही कभी भी चेतनता को छोड़कर जीव यदि पुद्गल-द्रव्य रूप परिणत हो जाये और पुद्गल-द्रव्य अपने मूर्त्तपने को व अचेतन-पने को छोड़कर चेतन-रूप और अमूर्त्त बन जाये तो तेरा कहना सत्य हो सकता है, किन्तु हे दुरात्मन् ! ऐसा कभी होता नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष-विरोध आता है । फलस्वरूप हम स्पष्ट देख रहे हैं कि जीव तो इस जड़-स्वरूप देह से भिन्न है जो की अमूर्त्त और शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव-वाला है । इस प्रकार देह और आत्मा में परस्पर भेद जानकर मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के विकल्प-जाल को छोड़कर निर्विकार-चैतन्य-मात्र निज-परमात्म-तत्त्व में भावना करनी चाहिए । इस प्रकार अप्रतिबुद्ध अज्ञानी को संबोधन के लिए पांचवें स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुईं ॥२८-३०॥ आगे पूर्व-पक्ष (जीव व शरीर को एक मानने) के परिहार-रूप में आठ गाथाएं कही जाती हैं । वहां पहली गाथा में पूर्व-पक्ष का कथन है, फिर चार गाथाओं में निश्चय और व्यवहार के समर्थन रूप में उसका परिहार है तथा तीन गाथाओं में निश्चय-स्तुति रूप से पूर्व-पक्ष का परिहार है, इस प्रकार छट्ठे स्थल की समुदाय पातनिका है । |