+ निर्वचिकित्सा व अमूढदृष्टि अंग का स्वरूप -
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । (231)
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥246॥
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु । (232)
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥247॥
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्
सो खलु निर्विचिकित्स: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३१॥
यो भवति असंमुढ: चेतयिता सद्दृष्टि: सर्वभावेषु
स खलु अमूढदृष्टि: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३२॥
जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तुधर्मों के प्रति
वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ॥२३१॥
सर्व भावों के प्रति सद्दृष्टि हैं असंमुढ़ हैं
अमूढ़दृष्टि समकिती वे आतमा ही जानना ॥२३२॥
अन्वयार्थ : [जो ण करेदि दुगुंछं चेदा] जो चेतयिता (ज्ञायक) जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता [सव्वेसिमेव धम्माणं] सभी धर्मों के प्रति [सो खलु णिव्विदिगिच्छो] उस यथार्थ निर्विचिकित्सक को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।
[जो हवदि असम्मूढो चेदा] जो चेतयिता (ज्ञायक) अमूढ़ है, [सद्दिट्ठि सव्वभावेसु] समस्त भावों में यथार्थ दृष्टिवाला है; [सो खलु अमूढदिट्ठी] उस यथार्थ अमूढ़-दृष्टा को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।
Meaning : The soul which does not exhibit revulsion (disgust) for attributes of physical things must be understood to be a revulsion-free right believer.
The soul which exhibits, in all dispositions, a view that is free from errors, and conforming to reality, must be understood to be a non-deluded right believer.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साभावा-न्निर्विचिकित्स:, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टि:, ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ॥२३१-२३२॥


सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सभी वस्तु-धर्मों के प्रति जुगुप्सा का अभाव होने से निर्विचिकित्सा अंग का धारी और सभी भावों में मोह का अभाव होने से अमूढ़दृष्टि अंग का धारी है । इसलिए उसे निश्चय से विचिकित्सा-कृत एवं मूढ़दृष्टि-कृत बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है ।
जयसेनाचार्य :

[जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं] जो चेतन आत्मा परमात्म-तत्त्व की भावना के बल से सभी वस्तुओं के स्वभावों के प्रति जुगुप्सा, ग्लानि, निन्दा या विचिकित्सा नहीं करता, दुर्गन्ध के विषय में ग्लानि नहीं करता [सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह ही ग्लानि-रहित सम्यग्दृष्टि माना गया है । उसके पर-पदार्थों के द्वेष-निमित्तक बन्ध नहीं होता किन्तु पूर्व-संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४६॥

[जो हवदि असम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु] जो चेतन आत्मा अपनी शुद्धात्मा में ही श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप निश्चय-रत्नत्रयमय भावना का बल है उससे समाधि परिणामों से शुभ और अशुभ कर्मों से उपजाये हुए परिणाम स्वरूप इन बाह्य द्रव्यों के विषयों में सर्वथा असंमूढ़ है मोह-ममता नहीं रखता है, [सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वास्तव में वही सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि अंग का धारी माना जाना चाहिए । इस ज्ञानी जीव के बाह्य-पदार्थों में मूढ़ता / ममता से होने वाला कर्म-बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा ही होती है ॥२४७॥