
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साभावा-न्निर्विचिकित्स:, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव । यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टि:, ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ॥२३१-२३२॥ सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सभी वस्तु-धर्मों के प्रति जुगुप्सा का अभाव होने से निर्विचिकित्सा अंग का धारी और सभी भावों में मोह का अभाव होने से अमूढ़दृष्टि अंग का धारी है । इसलिए उसे निश्चय से विचिकित्सा-कृत एवं मूढ़दृष्टि-कृत बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है । |
जयसेनाचार्य :
[जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं] जो चेतन आत्मा परमात्म-तत्त्व की भावना के बल से सभी वस्तुओं के स्वभावों के प्रति जुगुप्सा, ग्लानि, निन्दा या विचिकित्सा नहीं करता, दुर्गन्ध के विषय में ग्लानि नहीं करता [सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह ही ग्लानि-रहित सम्यग्दृष्टि माना गया है । उसके पर-पदार्थों के द्वेष-निमित्तक बन्ध नहीं होता किन्तु पूर्व-संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४६॥ [जो हवदि असम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु] जो चेतन आत्मा अपनी शुद्धात्मा में ही श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप निश्चय-रत्नत्रयमय भावना का बल है उससे समाधि परिणामों से शुभ और अशुभ कर्मों से उपजाये हुए परिणाम स्वरूप इन बाह्य द्रव्यों के विषयों में सर्वथा असंमूढ़ है मोह-ममता नहीं रखता है, [सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वास्तव में वही सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि अंग का धारी माना जाना चाहिए । इस ज्ञानी जीव के बाह्य-पदार्थों में मूढ़ता / ममता से होने वाला कर्म-बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा ही होती है ॥२४७॥ |