
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुपबृंहक:, ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव । यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बंध:, किन्तु निर्जरैव ॥२३३-२३४॥ सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण समस्त आत्म-शक्तियों की वृद्धि करनेवाला होने से उपबृंहक है, आत्म-शक्ति बढ़ानेवाला है, उपगूहन या उपबृंहण अंग का धारी है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष-मार्ग से च्युत होने पर स्वयं को मोक्ष-मार्ग में स्थापित कर देने से स्थितिकरण अंग का धारी है । इसलिए उसे शक्ति की दुर्बलता से होनेवाला और मार्ग से च्युत होने से होनेवाला बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है । |
जयसेनाचार्य :
[जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं] जो जीव शुद्धात्मा की भावना-रूप पारमार्थिक सिद्ध-भक्ति से युक्त है तो वह मिथ्यात्व और रागादिरूप-विभाव-भावों का उपगूहक अर्थात् दबाने-वाला है या नाश करने वाला ही है, [सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] तो ऐसा वह सम्यग्दृष्टि उपगुहनकारी माना जाना ही चाहिए । उस जीव के दोषों को नहीं छिपाने रूप अनुपगुहन के द्वारा किया हुआ बन्ध नहीं होता किन्तु उसके तो निश्चित रूप से पूर्व संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४८॥ [उम्मग्गं गच्छतं सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं] जो कोई मिथ्यात्व और रागादिरूप उन्मार्ग की ओर जाते हुये अपने आप को परम-उत्तमरूप योगाभ्यास के बल से अपनी शुद्ध आत्मा की भावना स्वरूप जो मोक्ष-मार्ग, शिव-मार्ग है उसमें निश्चलतया स्थापन करता है । [सो ठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव स्थितिकरण-गुण युक्त माना जाना चाहिये । उसके अस्थितीकरण रूप दोष का किया हुआ बन्ध नहीं होता किन्तु निश्चित-रूप से पूर्व-बद्ध कर्म की निर्जरा होती है ॥२४९॥ |