ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत (वदसमिदीगुत्तीओ) व्रत, समिति, गुप्तियाँ धम्माणुपेहा धर्म और अनुप्रेक्षा, परीसहजओ य और परीषहों का जीतना, चारित्तं बहुभेया अनेक प्रकार का चारित्र, (णायव्वा भावसंवरविसेसा) ये सब मिलकर भावसंवर के भेद जानने चाहिए । अब इसको विस्तार से कहते हैं -- निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ-अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है । व्यवहारनय से उस निश्चय व्रत को साधने वाला हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से जीवन भर त्याग रूप पाँच प्रकार का व्रत है । निश्चयनय की अपेक्षा अनन्तज्ञान आदि स्वभाव धारक निज आत्मा है, उसमें 'सम' भले प्रकार, अर्थात् समस्त रागादि विभागों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदिरूप से जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो समिति है । व्यवहार से उस निश्चय समिति के बहिरंग सहकारी कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रन्थों में कही हुई ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं । निश्चय से सहज शुद्ध आत्म-भावनारूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत रागादि के भय से अपने आत्मा का जो छिपाना, प्रच्छादन, झम्पन, प्रवेशन या रक्षा करना है, सो गुप्ति है । व्यवहारनय से बहिरंग साधन के अर्थ जो मन, वचन, काय की क्रिया को रोकना सो गुप्ति है । निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे (बचावे) सो विशुद्ध ज्ञान, दर्शन, लक्षणमयी निज शुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से जो वन्दने योग्य पद है, उसमें पहुँचाने वाला उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यरूप दस प्रकार का धर्म है । वे धर्म इस प्रकार हैं -- - जो समिति पालन में प्रवृत्तिरूप हैं, उनके प्रमाद को दूर करने के लिए धर्म का निरूपण किया गया है । क्रोध उत्पन्न होने में निमित्तीभूत ऐसे असह्य दुर्वचन आदि के अवसर प्राप्त होने पर कलुषता का न होना क्षमा है अर्थात् शरीर की स्थिति का कारण जो शुद्ध आहार उसकी खोज के लिए पर-कुलों (गृहों) में जाते हुए मुनि को दुष्टजनों द्वारा गाली, हास्य, निरादर के वचन कहे जाने पर भी तथा ताड़न, शरीर-घात इत्यादि क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त कारण मिलने पर भी परिणामों में मलिनता न आना, इस ही का नाम क्षमा कहा गया है ॥१॥
- उत्तम जाति आदि मद के आवेग से अभिमान का न होना मार्दव है ॥२॥ योगों की अकुटिलता आर्जव है अर्थात् मन-वचन-कायरूप योगों की सरलता को आर्जव कहा गया है ॥३॥
- सज्जनों से साधुवचन बोलना सत्य है अर्थात् प्रशस्त एवं श्रेष्ठ सज्जन पुरुषों से जो समीचीन वचन बोलना, वह सत्य कहलाता है ॥४॥
- लोभ की निवृत्ति की प्रकर्षता होना, शौच है । शुचि नाम पवित्रता का है, शुचि के भाव व कर्म को शौच कहते हैं ॥५॥
- समितियों के पालन करने वाले मुनिराज का प्राणियों की रक्षा करना तथा इन्द्रियों के विषयों का निषेध संयम है, अर्थात् ईर्यासमिति आदि में प्रवर्तमान मुनि का उनकी (समिति की) प्रतिपालना के लिए प्राणीपीड़ापरिहार एवं इंद्रियविषयासक्तिपरिहार को संयम कहते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का त्याग प्राणिसंयम है, शब्दादि इन्द्रियविषयों में राग का लगाव न होना इन्द्रिय-संयम है । उस संयम का विशेष निरूपण करने के लिए अथवा उसकी पालना के लिए अष्टशुद्धियों का उपदेश है । वे अष्टशुद्धि इस प्रकार हैं- भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनमें
- भावशुद्धि कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है, मोक्षमार्ग में रुचि होने से परिणामों को निर्मल करने वाली है तथा रागादि विकार से रहित है ।१।
- कायशुद्धि - आवरण एवं आभूषणों से रहित, समस्त संस्कारों से अतीत, बालक (यथाजात) के समान धूलि-धूसरित देह को धारण करने वाला शरीर विकारों से रहित है ।२।
- विनयशुद्धि - परम गुरु अरहन्तादि की यथायोग्य पूजा में तत्परता जहाँ रहती है, ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति जहाँ की जाती है, गुरु के प्रति जहाँ सर्वत्र अनुकूल वृत्ति होती है ।३।
- ईर्यापथ शुद्धि - नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के स्थान तथा योनिरूप आश्रयों का बोध होने से ऐसा प्रयत्न करना जिससे जीवों को पीड़ा न हो, ज्ञानरूपी सूर्य से एवं इन्द्रियों से तथा प्रकाश से भले प्रकार देखे हुए प्रदेश में गमन करना, जल्दी चलना, देर से चलना, चंचल उपयोग सहित चलना, साश्चर्य चलना, क्रीड़ा करते हुए चलना, विकार-युक्त चलना, इधर-उधर दिशाओं में देखते हुए चलना, इत्यादि चलने सम्बन्धी दोषों से रहित गमन करना ।४।
- भिक्षाशुद्धि - आचारसूत्र में कहे अनुसार काल, देश, प्रकृति का बोध करना, लाभ-अलाभ, मान-अपमान में समान मनोवृत्ति का रहना; लोकनिंद्य परिवारों में आहार के लिए नहीं जाना, चन्द्रमा की गति के समान कम और अधिक गृहों की जिसमें मर्यादा हो, विशेष रूप से जो स्थान दीन-अनाथों के लिए दानशाला हो अथवा विवाह तथा यज्ञ जिस गृह में हो रहे हों, ऐसे स्थानों में आहार के लिए चर्या नहीं करना । (अन्तराय एवं अनेक उपवासों के पश्चात् भी) दीन-वृत्ति का न होना । प्रासुक आहार खोजना ही जहाँ मुख्य लक्ष्य है । आगम विधि के अनुसार निर्दोष भोजन की प्राप्ति से प्राणों की स्थिति मात्र है लक्ष्य जिसमें, ऐसी भिक्षाशुद्धि है ।५।
- प्रतिष्ठापनशुद्धि - नखरोम, नासिकामल, कफ, वीर्य, मल-मूत्र की क्षेपणक्रिया में तथा शरीर की उठने-बैठने की क्रिया इत्यादि में जन्तुओं को बाधा न होने देना ।६।
- शयनासनशुद्धि- स्त्री, क्षुद्र पुरुष, चोर, मद्यपायी, जुआरी, मद्य-विक्रेता तथा पक्षियों को पकड़ने वाले आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिए । प्राकृतिक गिरि-गुफा, वृक्ष का कोटर तथा कृत्रिम सूने घर, छूटे हुए वा छोड़े हुए स्थानों में, जो अपने लिए नहीं बनाये गये हों, बसना चाहिए ।७।
- वाक्यशुद्धि - पृथिवीकायिकादि सम्बन्धी आरम्भ आदि की प्रेरणा जिसमें न हो, जो कठोर निष्ठुर और परपीडाकारी प्रयोगों से रहित हो, व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो, हित-मित-मधुर मनोहर और संयमी के योग्य हो, ऐसी वाक्यशुद्धि है ।८।
इस प्रकार संयम के अन्तर्गत आठ शुद्धियों का वर्णन हुआ । - कर्मक्षय के लिए जो तपा जाये वह तप है । वह तप दो प्रकार का है- बाह्य तप, अन्तरंग तप । इनमें से प्रत्येक छह प्रकार का है ॥७॥
- परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । चेतन-अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं अथवा संयमी के योग्य ज्ञानादि के दान को भी त्याग कहा गया है ॥८॥
- "यह मेरा है" इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिंचन्य है अर्थात् जो शरीरादि प्राप्त परिग्रह हैं उनमें संस्कार न रहे, इसके लिए "यह मेरा है" इस अभिप्राय की निवृत्ति को आकिंचन्य के नाम से कहा गया है । जिसके कुछ भी (परिग्रह) नहीं है वह अकिंचन है उसका जो भाव अथवा कर्म उसे आकिंचन्य
कहते हैं ॥९॥ - अनुभूत स्त्री का स्मरण, उसकी कथा का श्रवण तथा स्त्रीसंशक्त शय्या, आसन आदि स्थान के त्याग से ब्रह्मचर्य है अर्थात् "मैंने उस कलागुणविशारदा स्त्री को भोगा था" ऐसा स्मरण, उसकी पूर्व कथा का श्रवण एवं रतिकालीन सुगन्धित द्रव्यों की सुवास तथा स्त्रीसंसक्तशय्या आसन आदि के त्याग से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गुरु स्वरूप ब्रह्म जो शुद्ध आत्मा, उसमें चर्या होना ब्रह्मचर्य है ॥१०॥
इस प्रकार दस धर्म हैं । बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन किया जाता है- अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है । इनको विस्तार से कहते हैं - अध्रुव अनुप्रेक्षा कहते हैं - द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव से अविनाशी स्वभाव वाले निज परमात्म द्रव्य से भिन्न, अशुद्ध निश्चयनय से जो जीव के रागादि विभावरूप भावकर्म एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म व शरीरादि नोकर्मरूप तथा (उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से) उसके स्व-स्वामि-भाव सम्बन्ध से ग्रहण किये हुए स्त्री आदि चेतन द्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतन द्रव्य और चेतन-अचेतन मिश्र पदार्थ, उक्त लक्षण वाले ये सब पदार्थ अध्रुव (नाशवान) हैं; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए । ऐसी भावना वाले पुरुष के, उन स्त्री आदि पदार्थों के वियोग होने पर भी, जूठे भोजन के समान, ममत्व नहीं होता । उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा को ही भेद, अभेद रूप रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है । जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अध्रुव भावना है ॥१॥
- अशरण अनुप्रेक्षा को कहते हैं - निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, ये दोनों शरण (रक्षक) हैं । उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भौंहरा, मणि, मन्त्र, तन्त्र, आज्ञा, प्रासाद (महल) औषधि और आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरण आदि के समय शरण नहीं होते; जैसे महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को कोई शरण नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए । अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर, आगामी भोगों की वांछारूप निदानबन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभव से उत्पन्न सुख रूप अमृत के धारक निज-शुद्ध-आत्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्ध-आत्मा की भावना करता है । जैसी शरणभूत आत्मा का यह चिन्तन करता है, वैसे ही सदा शरणभूत, शरण में आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज-शुद्धात्मा को प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥२॥
- संसारानुप्रेक्षा -
- शुद्ध-आत्मद्रव्य से भिन्न सपूर्व (पुराने), अपूर्व (नये) तथा मिश्र ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म रूप से तथा शरीरपोषण के लिए भोजनपान आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय रूप से इस जीव ने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है, इस प्रकार द्रव्यसंसार है ।
- निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य सम्बन्धी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न लोक-क्षेत्र के सर्व प्रदेशों में एक-एक प्रदेश को व्याप्त करके, अनन्त बार यह जीव उत्पन्न न हुआ हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है । यह क्षेत्रसंसार है ।
- निज-शुद्धात्म अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि का काल छोड़कर (प्राप्त न करके) दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्सर्पिणीकाल और दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणीकाल के एक-एक समय में अनेक परावर्तन करके यह जीव अनन्त बार जन्मा न हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी समय नहीं है । इस प्रकार कालसंसार है ।
- अभेद रत्नत्रयात्मक ध्यान के बल से सिद्धगति में निज-आत्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध पर्याय रूप उत्पाद के सिवाय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के भवों में निश्चय रत्नत्रय की भावना से रहित और भोग-वांछादि निदान सहित द्रव्यतपश्चरणरूप मुनिदीक्षा के बल से नव ग्रैवेयक तक प्रथम स्वर्ग का इन्द्र, प्रथम स्वर्ग की इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशा के इन्द्र, लोकपाल और लौकान्तिकदेव ये सब स्वर्ग से च्युत होकर निवृत्ति (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं ॥१॥ गाथा में कहे हुए पदों को तथा आगम में निषिद्ध अन्य उत्तम पदों को छोड़कर भवनाशक निज-आत्मा की भावना से रहित व संसार को उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व राग आदि भावों से सहित हुआ, यह जीव अनन्त बार जन्मा है और मरा है । इस प्रकार भवसंसार जानना चाहिए ।
- अब भावसंसार का कथन किया जाता है- सबसे जघन्य प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत सर्व जघन्य मन, वचन, काय के अवलम्बन से परिस्पन्द रूप श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा चार स्थानों में पतित (वृद्धि हानि), ऐसे सर्व जघन्य योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व उत्कृष्ट प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत, सर्वोत्कृष्ट मन, वचन, काय के व्यापार रूप, यथायोग्य श्रेणी के असंख्यातवें-भाग प्रमाण, चार स्थानों में पतित सर्वोत्कृष्ट योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व जघन्य स्थितिबन्ध के कारणभूत, अपने योग्य असंख्यात लोक प्रमाण, षट्स्थान वृद्धि-हानि में पतित सर्वजघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं । इसी तरह सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारणभूत सर्वोत्कृष्ट कषाय अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट् स्थानों में पतित होते हैं । इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभागबन्ध के कारणभूत सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण तथा षट्स्थान पतित हानिवृद्धि रूप होते हैं । इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग-बन्ध के कारण जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट्स्थान पतित जानने चाहिए । इसी प्रकार से अपने-अपने जघन्य और उत्कृष्ट के बीच में तारतम्य से मध्यम भेद भी होते हैं । इसी तरह जघन्य से उत्कृष्ट तक ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबन्ध स्थान हैं । उन सब में, परमागम अनुसार, इस जीव ने अनन्त बार भ्रमण किया, परन्तु पूर्वोक्त समस्त प्रकृति बन्ध आदि की सत्ता के नाश के कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण रूप जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हैं, उनको इस जीव ने प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार भावसंसार है ।
इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पाँच प्रकार के संसार का चिन्तन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्ध आत्मज्ञान का नाश करने वाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, उनमें परिणाम नहीं जाता किन्तु वह संसारातीत (संसार में प्राप्त न होने वाला अतीन्द्रिय) सुख के अनुभव में लीन होकर, निजशुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज-निरंजन-परमात्मा में भावना करता है । तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है, उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनन्तकाल तक रहता है । यहाँ विशेष यह है - नित्य निगोद के जीवों को छोड़कर, पंच प्रकार के संसार का व्याख्यान जानना चाहिए (नित्य-निगोदी जीव इस पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण नहीं करते); क्योंकि नित्य निगोदवर्ती जीवों को तीन काल में भी त्रसपर्याय नहीं मिलती । सो कहा भी है- ऐसे अनन्त जीव हैं कि जिन्होंने त्रसपर्याय को अभी तक प्राप्त ही नहीं किया वे भावकलंकों (अशुभ परिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोद के निवास को कभी नहीं छोड़ते । किन्तु यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि नौ सौ तेईस जीव, कर्मों की निर्जरा (मन्द) होने से, इंद्रगोप (मखमली लाल कीड़े) हुए उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया इससे वे मरकर, भरत के वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए । वे पुत्र किसी के भी साथ नहीं बोलते थे । इसलिए भरत ने समवसरण में भगवान् से पूछा, तो भगवान् ने उन पुत्रों का पुराना सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर उन सब वर्द्धनकुमारादि ने तप ग्रहण किया और बहुत थोड़े काल में मोक्ष चले गये । यह कथा आचाराराधना की टिप्पणी में कही गई है । इस प्रकार संसार अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥३॥ - अब एकत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं- निश्चयरत्नत्रय लक्षण वाली एकत्व भावना में परिणत इस जीव के निश्चयनय से स्वाभाविक आनन्द आदि अनन्त गुणों का आधाररूप केवलज्ञान ही एक स्वाभाविक शरीर है । यहाँ 'शरीर' शब्द का अर्थ 'स्व-रूप' है, न कि सात धातुओं से निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आर्त और रौद्र दुर्ध्यानों से विलक्षण परमसामायिक रूप एकत्वभावना में परिणत जो एक अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी और परम हितकारी व परम बन्धु है; विनश्वर व अहितकारी पुत्र, मित्र, कलत्र आदि बन्धु नहीं हैं । उसी प्रकार परम उपेक्षा संयमरूप एकत्व भावना से सहित जो निज शुद्धात्म पदार्थ है, वही एक अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ है, सुवर्ण आदि परम-अर्थ नहीं हैं । एवं निर्विकल्प-ध्यान से उत्पन्न निर्विकार परम-आनन्द-लक्षण, आकुलतारहित आत्म-सुख ही एक सुख है और आकुलता उत्पन्न करने वाला इन्द्रियजन्य जो सुख है वह सुख नहीं
शंका - शरीर, बन्धुजन तथा सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि को निश्चयनय से जीव के लिए हेय क्यों कहे हैं? समाधान - मरण समय यह जीव अकेला ही दूसरी गति में गमन करता है, देह आदि इस जीव के साथ नहीं जाते । तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है तब विषय कषाय आदि रूप दुर्ध्यान से रहित एक-निजशुद्ध-आत्मा ही इसका सहायक होता है । शंका- वह कैसे सहायक होता है? समाधान- यदि जीव का वह अन्तिम शरीर हो, तब तो केवलज्ञान आदि की प्रकटतारूप मोक्ष में ले जाता है और यदि अन्तिम शरीर न हो, तो वह संसार की स्थिति को कम करके देवेन्द्रादि सांसारिक सुख को देकर तत्पश्चात् परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराता है । यह निष्कर्ष है । कहा भी है तप करने से स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु ध्यान के योग से जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भव में अक्षय-सुख को प्राप्त करता है ॥१॥ इस तरह एकत्व भावना के फल को जान कर, सदा निज-शुद्ध आत्मा में एकत्व रूप भावना करनी चाहिए । इस प्रकार एकत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥४॥ - अब अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - पूर्वोक्त देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रियसुख आदि कर्मों के अधीन हैं, इसी कारण विनाशशील तथा हेय भी हैं । इस कारण टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप एकस्वभाव से नित्य, सब प्रकार उपादेयभूत निर्विकार-परम चैतन्य चित्-चमत्कार स्वभाव रूप जो निज-परमात्म पदार्थ हैं, निश्चयनय की अपेक्षा उससे वे सब देह आदि भिन्न हैं । आत्मा भी उनसे भिन्न है । भावार्थ है कि एकत्व अनुप्रेक्षा में तो "मैं एक हूँ" इत्यादि प्रकार से विधि रूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में "देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं" इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है । इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधिनिषेध रूप का ही अन्तर है, तात्पर्य दोनों का एक ही है । ऐसे अन्यत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥५॥
- इसके आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - सब प्रकार से अपवित्र वीर्य और रज से उत्पन्न होने के कारण, वसा, रुधिर, माँस, मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा और शुक्र धातु हैं, इन अपवित्र सात धातुमय होने से, नाक आदि नौ छिद्रद्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र, विष्ठा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर अपने संसर्ग से पवित्र-सुगन्ध-माला व वस्त्र आदि में भी अपवित्रता उत्पन्न कर देता है, इसलिए भी यह देह अशुचि है । अब पवित्रता को बतलाते हैं- सहज-शुद्ध केवलज्ञान आदि गुण का आधार होने से और निश्चय से पवित्र होने से यह परमात्मा ही शुचि है । जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है, उसको परदेह की सेवा रहित ब्रह्मचर्य जानो । इस गाथा में कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, वह निज परमात्मा में स्थित जीवों को ही मिलता है तथा ब्रह्मचारी सदा पवित्र है इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों के ही पवित्रता है । जो काम, क्रोध आदि में लीन जीव हैं, उनके जल-स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है क्योंकि जन्म से शूद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्र) से श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिए ।१। इस आगम वचनानुसार वे (परमात्मा में लीन) ही वास्तविक शुद्ध ब्राह्मण हैं । नारायण ने युधिष्ठिर से कहा भी है - विशुद्ध आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान करना शुचि का कारण नहीं है । संयमरूपी जल से भरी, सत्यरूपी प्रवाहशीलरूप तट और दयामय तरंगों की धारक जो आत्मा रूपी नदी है, उसमें हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! स्नान करो क्योंकि अन्तरात्मा जल से शुद्ध नहीं होता है ॥१॥ इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का वर्णन हुआ ॥६॥
- अब आगे आस्रवानुप्रेक्षा कहते हैं । जैसे छेद वाली नाव समुद्र में डूबती है, उसी तरह इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा यह जीव संसार-समुद्र में गिरता है, यह वार्तिक है । अतीन्द्रिय निजशुद्धात्मज्ञान से विलक्षण स्पर्शन, रसना, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । परम उपशम रूप परमात्म स्वभाव को क्षोभित करने वाले क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं । राग आदि विकल्पों से रहित ऐसे शुद्ध-आत्मानुभव से प्रतिकूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों में प्रवृत्तिरूप पाँच अव्रत हैं । क्रिया रहित और निर्विकार आत्मतत्त्व से विपरीत मन-वचन-काय के व्यापार रूप, शास्त्र में कही हुई सम्यक् क्रिया, मिथ्यात्व आदि पच्चीस क्रियायें हैं । इस प्रकार इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया रूप आस्रवों का स्वरूप जानना चाहिए । जैसे समुद्र में अनेक रत्नों से भरा हुआ छिद्र सहित जहाज उसमें जल के प्रवेश से डूब जाता है, समुद्र के किनारे पत्तन (नगर) को नहीं पहुँच पाता । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप अमूल्य रत्नों से पूर्ण जीवरूपी जहाज, इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा कर्मरूपी जल का प्रवेश हो जाने पर, संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है । केवलज्ञान, अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुणमय रत्नों से पूर्ण व मुक्ति स्वरूप वेलापत्तन (संसार-समुद्र के किनारे का नगर) को यह जीव नहीं पहुँच पाता इत्यादि प्रकार से आस्रवगत दोषों का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है ॥७॥
- अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं । वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जीवरूपी जहाज अपने शुद्ध आत्मज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवरूप छिद्रों के बन्द हो जाने पर कर्मरूप जल न घुस सकने से, केवलज्ञान आदि अनन्तगुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूप वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है । ऐसे संवर के गुणों के चिंतनरूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए ॥८॥
- अब निर्जरानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं जैसे किसी मनुष्य के अजीर्ण होने से पेट में मल का जमाव हो जाने पर, वह मनुष्य आहार को छोड़कर मल को पचाने वाले तथा जठराग्नि को तीव्र करने वाले हरड़ आदि औषध को ग्रहण करता है । जब उस औषध से मल पक जाता है, गल जाता है अथवा पेट से बाहर निकल जाता है तब वह मनुष्य सुखी होता है । उसी प्रकार यह भव्य जीव भी अजीर्ण उत्पन्न करने वाले आहार के स्थानभूत मिथ्यात्व-रागादि अज्ञान भावों से कर्मरूपी मल का संचय होने पर मिथ्यात्व-राग आदि छोड़कर, जीवन-मरण में व लाभ-अलाभ में और सुख-दुःख आदि में समभाव को उत्पन्न करने वाला, कर्ममल को पकाने वाला तथा शुद्ध-ध्यानअग्नि को प्रज्ज्वलित करने वाला, जो परम औषध के स्थानभूत जिनवचनरूप औषध है, उसका सेवन करता है, उससे कर्मरूपी मलों के गलन तथा निर्जरण हो जाने पर सुखी होता है । विशेष - जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्ण के समय जो कष्ट हुआ उसको अजीर्ण चले जाने पर भी नहीं भूलता और अजीर्ण पैदा करने वाले आहार को छोड़ देता है, जिससे सदा सुखी रहता है; उसी तरह ज्ञानी मनुष्य भी, 'दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं' इस वाक्यानुसार, दु:ख के समय जो धर्मरूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जाने पर भी नहीं भूलता । तत्पश्चात् निज परमात्म अनुभव के बल से निर्जरा के लिए देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोग-वांछादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है । संवेग और वैराग्य का लक्षण कहते हैं-
धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ॥१॥ ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥९॥ - अब लोकानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं- वह इस प्रकार है; अनन्तानन्त आकाश के बिल्कुल मध्य के प्रदेशों में, घनोदधि, घनवात, तनुवात नामक तीन पवनों से बेढ़ा हुआ, अनादि अनन्त अकृत्रिम निश्चल असंख्यात प्रदेशी लोक है । उसका आकार बतलाते हैं- नीचे मुख किये हुए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है; परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह अन्तर है । अथवा पैर फैलाये, कमर पर हाथ रखे, खड़े हुए मनुष्य का जैसा आकार होता है, वैसा लोक का आकार है । अब उस लोक की ऊँचाई-लम्बाई-विस्तार का निरूपण करते हैं- चौदह राजू प्रमाण ऊँचा तथा दक्षिण उत्तर में सब जगह सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम में नीचे के भाग में सात राजू विस्तार है, फिर उस अधोभाग से, क्रम से इतना घटता है कि मध्यलोक (बीच) में एक राजू रह जाता है फिर मध्यलोक से ऊपर क्रम से बढ़ता है सो ब्रह्मलोक नामक पंचम स्वर्ग के अन्त में पाँच राजू का विस्तार है, उसके ऊपर फिर घटता हुआ लोक के अन्त में जाकर एक राजू प्रमाण विस्तार वाला रह जाता है । इसी लोक के मध्य में, ऊखल के मध्य भाग से नीचे की ओर छिद्र करके एक बाँस की नली रखी जावे, उसका जैसा आकार होता है उसके समान, एक चौकोर प्रसनाड़ी है, वह एक राजू लम्बी-चौड़ी और चौदह राजू ऊँची जाननी चाहिए । उस त्रसनाड़ी के नीचे के भाग के जो सात राजू हैं वे अधोलोक सम्बन्धी हैं । ऊर्ध्व भाग में, मध्य लोक की ऊँचाई सम्बन्धी लक्ष-योजन-प्रमाण सुमेरु की ऊँचाई सहित सात राजू ऊर्ध्व लोक सम्बन्धी हैं ।
इसके आगे अधोलोक का कथन करते हैं- अधोभाग में सुमेरु की आधारभूत रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी है । उस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे-नीचे एक-एक राजू प्रमाण आकाश जाकर क्रमशः शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नामक ६ भूमियाँ हैं । उनके नीचे भूमिरहित एक राजूप्रमाण जो क्षेत्र है वह निगोद आदि पंच स्थावरों से भरा हुआ है । घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक जो तीन वातवलय हैं वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी के आधारभूत हैं (रत्नप्रभा आदि पृथ्वी इन तीनों वातवलयों के आधार से हैं) यह जानना चाहिए । किस पृथ्वी में कितने (कुएँ सरीखे) नरक-बिल हैं, उनको यथाक्रम से कहते हैं- पहली भूमि में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख तथा सातवीं पृथ्वी में पाँच, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) नरक-बिल हैं । अब रत्नप्रभा आदि भूमियों का पिण्ड प्रमाण क्रम से कहते हैं । यहाँ पिण्ड शब्द का अर्थ गहराई या मोटाई है । प्रथम पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार, दूसरी का बत्तीस हजार, तीसरी का अट्ठाईस हजार, चौथी का चौबीस हजार, पाँचवीं का बीस हजार, छठी का सोलह हजार और सातवीं का आठ हजार योजन पिण्ड जानना चाहिए । उन पृथिवियों का तिर्यग् विस्तार चारों दिशाओं में यद्यपि त्रस नाड़ी की अपेक्षा से एक राजू प्रमाण है तथापि त्रसों से रहित जो त्रस नाड़ी के बाहर का भाग है वह लोक के अन्त तक है । सो ही कहा है- अन्त को स्पर्श करती हुई भूमियों का प्रमाण सब दिशाओं में लोकान्त प्रमाण है । अब यहाँ विस्तार की अपेक्षा तिर्यक् लोकपर्यन्त विस्तार वाली, गहराई (मोटाई) की अपेक्षा मेरु की अवगाह समान एक हजार योजन मोटी चित्रा पृथ्वी मध्य लोक में है । उस पृथ्वी के नीचे सोलह हजार योजन मोटा खर भाग है । उस खर भाग के भी नीचे चौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है । उससे भी नीचे के भाग में अस्सी हजार योजन मोटा अब्बहुल भाग है । इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग भेदों से तीन प्रकार की जाननी चाहिए । उनमें ही खर भाग में असुरकुमार देवों के सिवाय नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षसों के सिवाय सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवास स्थान हैं । पंक भाग में असुर तथा राक्षसों का निवास है । अब्बहुल भाग में नरक हैं । बहुत से खनों (मंजिलों) वाले महल के समान नीचे-नीचे सब पृथिवियों में अपनी-अपनी मोटाई में, नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़ कर, जो बीच का भाग है, उसमें पटल होते हैं । भूमि के क्रम से वे पटल पहली पृथ्वी में तेरह, दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात, पाँचवीं में पाँच, छठी में तीन और सातवीं में एक, ऐसे सब ४९ पटल हैं । 'पटल' का क्या अर्थ है? पटल का अर्थ प्रस्तार, इन्द्रक अथवा अन्तर भूमि है । रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी के सीमन्त नामक पहले पटल में ढाईद्वीप के समान संख्यात (पैंतालीस लाख) योजन विस्तार वाला जो मध्य-बिल है, उसकी इन्द्रक संज्ञा है । उस इन्द्रक की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में असंख्यात योजन विस्तार वाले ४९ बिल हैं और इसी प्रकार चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पंक्ति रूप जो ४८-४८ बिल हैं, वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं । (इन्द्रक-बिल की दिशा और विदिशाओं में जो पंक्ति रूप बिल हैं) उनकी श्रेणीबद्ध' संज्ञा है । चारों दिशाओं और विदिशाओं के बीच में, पंक्ति के बिना, बिखरे हुए पुष्पों के समान, संख्यात योजन तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले जो बिल हैं, उनकी 'प्रकीर्णक' संज्ञा है । ऐसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक रूप से तीन प्रकार के नरक हैं । इस प्रकार प्रथम पटल का व्याख्यान जानना चाहिए । इसी प्रकार पूर्वोक्त जो सातों पृथिवियों में उनचास पटल हैं उनमें भी बिलों का ऐसा ही क्रम है; किन्तु प्रत्येक पटल में, आठों दिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों में से एक-एक बिल घटता गया है, अतः सातवीं पृथ्वी में चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है । रत्नप्रभादि पृथिवियों के नारकियों के शरीर की ऊँचाई कहते हैं- प्रथम पटल में तीन हाथ की ऊँचाई है और यहाँ से क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तेरहवें पटल में सात धनुष, तीन हाथ और ६ अंगुल की ऊँचाई है । तदनन्तर दूसरी आदि पृथिवियों के अन्त के इन्द्रक बिलों में दूनी-दूनी वृद्धि करने से सातवीं पृथ्वी में पाँच सौ धनुष की ऊँचाई होती है । ऊपर के नरक में जो उत्कृष्ट ऊँचाई है उससे कुछ अधिक नीचे के नरक में जघन्य ऊँचाई है । इसी प्रकार पटलों में भी जानना चाहिए । नारकी जीवों की आयु का प्रमाण कहते हैं । प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल में जघन्य दस हजार वर्ष की आयु है; तत्पश्चात् आगम में कहे हुए क्रमानुसार वृद्धि से अन्त के तेरहवें पटल में एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर क्रम से दूसरी पृथ्वी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दस सागर, पाँचवीं में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तैंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । जो पहली पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु है, उससे एक समय अधिक दूसरी में जघन्य आयु है । इसी तरह जो पहले पटल में उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे ही सातवीं पृथ्वी तक जानना चाहिए । निजशुद्ध-आत्मानुभव रूप निश्चय रत्नत्रय से विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सरट (गोह आदि) पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री की क्रम से रत्नप्रभादि छह पृथिवियों तक जाने की शक्ति है (असैनी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि तक, सरट (गोह) पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक तथा स्त्री का जीव छठी भूमि तक जा सकता है) और सातवीं पृथ्वी में कर्मभूमि के उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं । विशेष- यदि कोई जीव निरन्तर नरक में जाता है तो प्रथम पृथ्वी में आठ बार, दूसरी में सात बार, तीसरी में छह बार, चौथी में पाँच बार, पाँचवीं में चार बार, छठी में तीन बार और सातवीं में दो बार ही जा सकता है किन्तु सातवें नरक से आये हुए जीव फिर एक बार उसी या अन्य किसी नरक में जाते हैं, ऐसा नियम है । नरक से आये हुए जीव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नामक शलाकापुरुष नहीं होते । चौथे नरक से आये हुए जीव तीर्थंकर, पाँचवें से आये हुए जीव चरम शरीरी, छठे से आये हुए जीव भावलिंगी मुनि और सातवें से आये हुए जीव श्रावक नहीं होते । तो क्या होते हैं? नरक से आये हुए जीव, कर्मभूमि में संज्ञी, पर्याप्त तथा गर्भज मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं । सातवें नरक से आये हुए तिर्यञ्च ही होते हैं ॥१॥ अब नारकियों के दुःखों का कथन करते हैं । यथा विशुद्धज्ञान, दर्शनस्वभाव निज शुद्ध परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण की भावना से समुत्पन्न निर्विकार परम-आनन्दमय सुखरूपी अमृत के आस्वाद से रहित और पाँच इन्द्रियों के विषय सुखास्वाद में लम्पट, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों ने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि पापकर्म उपार्जन किया है, उसके उदय से वे नरक में लवणउत्पन्न होते हैं । वहाँ पहले की चार पृथिवियों में तीव्र गर्मी का दुःख और पाँचवीं पृथ्वी के ऊपरी तीन चौथाई भाग में तीव्र उष्णता का दुःख और नीचे के एक चौथाई भाग में तीव्र शीत का दुःख तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में अत्यन्त शीत के दुःख का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार छेदने, भेदने, करोती से चीरने, घानी में पेलने और शूली पर चढ़ाने आदि रूप तीव्र दुःख सहन करते हैं । सो ही कहा है कि नरक में रात-दिन दुःख-रूप अग्नि में पकते हुए नारकी जीवों को नेत्रों के टिमकार मात्र भी सुख नहीं है किन्तु सदा दुःख ही लगा रहता है ॥१॥ पहली तीन पृथिवियों तक असुरकुमार देवों द्वारा उत्पन्न किये हुए दुःख भी सहते हैं । ऐसा जानकर, नरक-सम्बन्धी दु:ख के नाश के लिए भेद तथा अभेद रूप रत्नत्रय की भावना करनी चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से अधोलोक का व्याख्यान जानना चाहिए । इसके अनन्तर तिर्यग् लोक का वर्णन करते हैं । अपने दूने-दूने विस्तार से पूर्व-पूर्व द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप इस क्रम से बेढ़ करके, गोल आकार वाले जम्बूद्वीप आदि शुभ नामों वाले द्वीप और लवणोदधि आदि शुभ नामों वाले समुद्र; स्वयम्भूरमण समुद्र तक तिर्यग् विस्तार से फैले हुए हैं । इस कारण इसको तिर्यग् लोक या मध्य लोक भी कहते हैं । वह इस प्रकार है-साढ़े तीन उद्धार सागर प्रमाण लोमों (बालों) के टुकड़ों के बराबर जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनके बीच में जम्बूद्वीप है । वह जम्बू (जामुन) के वृक्ष से चिह्नित तथा मध्य भाग में स्थित सुमेरु पर्वत सहित है; गोलाकार एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले दो लाख योजन प्रमाण गोलाकार लवण समुद्र से वेष्टित (बेढ़ा हुआ) है । वह लवण समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार धातकीखण्ड द्वीप से वेष्टित है । वह धातकीखण्ड द्वीप भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले आठ लाख योजन प्रमाण गोलाकार कालोदधि समुद्र से वेष्टित है । वह कालोदक समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले सोलह लाख योजन प्रमाण गोलाकार पुष्कर द्वीप से वेष्टित है । इस प्रकार यह दूना-दूना विस्तार स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभूरमण समुद्र तक जानना चाहिए । जैसे जम्बूद्वीप एक लाख योजन और लवणसमुद्र दो लाख योजन चौड़ा है, इन दोनों का समुदाय तीन लाख योजन है; उससे एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन धातकीखण्ड है । इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों के विष्कम्भ का जो योग है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्र का विष्कम्भ जानना चाहिए । ऐसे पूर्वोक्त लक्षण के धारक असंख्यात द्वीप समुद्रों में पर्वत आदि के ऊपर व्यन्तर देवों के आवास; नीचे की पृथ्वी के भाग में भवन और द्वीप तथा समुद्र आदि में पुर हैं । इन आवास; भवन तथा पुरों के परमागमानुसार भिन्न-भिन्न लक्षण हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमि के खरभाग और पंकभाग में स्थित प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्य व्यन्तरदेवों के आवास हैं तथा सात करोड़ बहत्तर लाख भवनवासी देवों के भवन अकृत्रिम जिन चैत्यालयों सहित हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप से मध्यलोक का व्याख्यान किया । अब तिर्यग्लोक के बीच में स्थित मनुष्य लोक का व्याख्यान करते हैं । उस मनुष्यलोक बीच में स्थित जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं । दक्षिण दिशा से आरम्भ होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र हैं । क्षेत्र का क्या अर्थ है? यहाँ क्षेत्र शब्द से वर्ष; वंश; देश अथवा जनपद अर्थ का ग्रहण है । उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले छह कुलाचल हैं । दक्षिण दिशा की ओर से उनके नाम १. हिमवत्, २. महाहिमवत्, ३. निषध, ४. नील, ५. रुक्मी और ६. शिखरी हैं । पूर्व-पश्चिम लम्बे ये पर्वत उन भरत आदि सप्त क्षेत्रों के बीच में हैं । पर्वत का क्या अर्थ है? पर्वत का अर्थ वर्षधर पर्वत अथवा सीमा पर्वत है । उन पर्वतों के ऊपर हृदों का क्रम से कथन करते हैं । १. पद्म, २. महापद्म, ३. तिगिंछ, ४. केसरी, ५. महापुंडरीक, ६. पुंडरीक ये अकृत्रिम छह हृद हैं । हृद का क्या अर्थ है? हृद का अर्थ सरोवर है । उन पद्म आदि ६ हृदों से आगम में कहे क्रमानुसार जो चौदह महानदियाँ निकली हैं, उनका वर्णन करते हैं । तथा हिमवत् पर्वत पर स्थित पद्म नामक महाहृद के पूर्व तोरण द्वार से, अर्ध कोस प्रमाण गहरी और एक कोस अधिक छह योजन प्रमाण चौड़ी गंगा नदी निकलकर, उसी हिमवत् पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा में पाँच सौ योजन तक जाती है; फिर वहाँ से गंगाकूट के पास दक्षिण दिशा को मुड़कर, भूमि में स्थित कुण्ड में गिरती है, वहाँ से दक्षिण द्वार से निकलकर, भरत क्षेत्र के मध्य भाग में स्थित तथा अपनी लम्बाई से पूर्व पश्चिम समुद्र को छूने वाले विजयार्द्ध पर्वत की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्द्ध भाग में पूर्व को घूमकर पहली गहराई की अपेक्षा दसगुणी अर्थात् ५ कोस गहरी और इसी प्रकार पहली चौड़ाई से दस गुणी अर्थात् साढ़े बासठ योजन चौड़ी गंगा नदी पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है । इस गंगा की भाँति सिन्धु नामक महानदी भी उसी हिमवत् पर्वत पर विद्यमान पद्म हृद के पश्चिम द्वार से निकलकर पर्वत पर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशा को आकर विजयार्द्ध की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्धभाग में पश्चिम को मुड़कर पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस प्रकार दक्षिण दिशा को आई हुई गंगा और सिन्धु दो नदियों से और पूर्व-पश्चिम लम्बे विजयार्द्ध पर्वत से भरत क्षेत्र छह खण्ड वाला किया गया है अर्थात् भरत के छह खण्ड हो जाते हैं । महाहिमवत् पर्वत पर स्थित महापद्म नामक हृद के दक्षिण दिशा की ओर से हैमवत् क्षेत्र के मध्य में आकर, वहाँ पर स्थित नाभिगिरि पर्वत को आधा योजन से न छूती हुई (पर्वत से आधा योजन दूर रहकर), उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहित् नामा नदी पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार रोहितास्या नदी हिमवत् पर्वत के पद्म हृद से उत्तर को आकर, उसी नाभिगिरि से आधा योजन दूर रहती हुई; उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्र में गई है । इस प्रकार रोहित और रोहितास्या नामक दो नदियाँ हैमवत् नामक जघन्य भोगभूमि के क्षेत्र में जाननी चाहिए । हरित नदी निषध पर्वत के तिगिंछ हृद से दक्षिण को आकर नाभिगिरि पर्वत से आधे योजन दूर रहकर उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पूर्व समुद्र में गई है । इसी तरह हरिकान्ता नदी महाहिमवत् पर्वत के महापद्म हृद से उत्तर दिशा की ओर आकर, उसी नाभिगिरि को आधे योजन तक न स्पर्शती हुई अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्र में गई है । ऐसे हरित और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामक मध्य-भोगभूमि क्षेत्र में हैं । सीता नदी नील पर्वत के केसरी हृद से दक्षिण को आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमि क्षेत्र के बीच में होकर, मेरु के पास आकर, गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन तक दूर रहकर, पूर्व भद्रशालवन और पूर्व विदेह के मध्य में होकर, पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार सीतोदा नदी निषधपर्वत के तिगिंछह्रद से उत्तर को आकर, देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि क्षेत्र के बीच में से जाकर मेरु के पास गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन दूर रहकर, पश्चिम भद्रशालवन के और पश्चिम विदेह के मध्य में गमन करके, पश्चिम समुद्र को गई है । ऐसे सीता और सीतोदा नामक नदियों का युगल विदेह नामक कर्मभूमि के क्षेत्र में जानना चाहिए । जो विस्तार और अवगाह का प्रमाण पहले गंगा-सिंधु नदियों का कहा है, उससे दूनादूना विस्तार आदि, प्रत्येक क्षेत्र में, नदियों के युगलों का विदेह तक जानना चाहिए । गंगा चौदह हजार परिवार की नदियों सहित है । इसी प्रकार सिन्धु भी चौदह हजार नदियों की धारक है । इनसे दूनी परिवार नदियों की धारक रोहित व रोहितास्या है । हरित-हरिकान्ता का इससे भी दूना परिवार है । सीता-सीतोदा दोनों नदियों का इनसे भी दूना परिवार है । दक्षिण से उत्तर को पाँच सौ छब्बीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से ६ भाग प्रमाण कर्मभूमि संज्ञक भरत क्षेत्र का विष्कम्भ है । उससे दूना हिमवत् पर्वत का, हिमवत् पर्वत से दूना हैमवत क्षेत्र का, ऐसे दूना-दूना विष्कम्भ विदेह क्षेत्र तक जानना चाहिए । पद्म हृद एक हजार योजन लम्बा, उससे आधा (पाँच सौ योजन) चौड़ा और दस योजन गहरा है, उसमें एक योजन का कमल है, उससे दूना महापद्म हृद में और उससे दूना तिगिंछ हृद में जानना । जैसे भरतक्षेत्र में हिमवत् पर्वत से गंगा तथा सिन्धु ये दो नदियाँ निकलती हैं वैसे ही उत्तर दिशा में कर्मभूमिसंज्ञक ऐरावत क्षेत्र में शिखरी पर्वत से निकली हुई रक्ता तथा रक्तोदा नामक दो नदियाँ हैं । जैसे हैमवत नामक जघन्य भोगभूमि क्षेत्र में महाहिमवत् और हिमवत् नामक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई रोहित तथा रोहितास्या, ये दो नदियाँ हैं, इसी प्रकार उत्तर में हैरण्यवत नामक जघन्य भोगभूमि में, शिखरी और रुक्मी नामक पर्वतों से क्रमशः निकली हुई सुवर्णकूला तथा रूप्यकूला, ये दो नदियाँ हैं । जिस तरह हरि नामक मध्यम भोगभूमि में, निषध और महाहिमवन् पर्वतों से क्रमशः निकली हुई हरित-हरिकान्ता, ये दो नदियाँ हैं, उसी तरह उत्तर में रम्यक नामक मध्यम भोगभूमि-क्षेत्र में रुक्मी और नील संज्ञक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई नारी-नरकान्ता दो नदियाँ जाननी चाहिए । सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों सम्बन्धी आयु तथा शरीर की ऊँचाई आदि परमागम में कही गई है, उन सहित दस कोटा-कोटि सागर प्रमाण, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल भरत जैसे ही ऐरावत में भी होते हैं । इतना विशेष है कि भरत ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों में और विजयार्ध पर्वतों में चतुर्थ काल के आदि तथा अन्त के समान काल वर्तता है, अन्य काल नहीं वर्तता । विशेष क्या कहें, जैसे खाट का एक भाग जान लेने पर उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; उसी तरह जम्बूद्वीप के क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदि का जो दक्षिण दिशा सम्बन्धी व्याख्यान है वही उत्तर दिशा सम्बन्धी भी जानना । अब शरीर में ममत्व के कारणभूत मिथ्यात्व तथा राग आदि विभावों से रहित और केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों से सहित निज परमात्म द्रव्य में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके, मुनिजन जहाँ से विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकता से मोक्ष प्राप्त करते हैं उसको विदेह कहते हैं । जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र का कुछ वर्णन करते हैं । निन्यानवे हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और आदि में भूमितल पर दस हजार योजन गोल विस्तार वाला तथा ऊपर-ऊपर ग्यारहवें भाग हानि क्रम से घटते-घटते शिखर पर एक हजार योजन विस्तार का धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देववन तथा देवों के आवास आदि नाना प्रकार के आश्चर्यों सहित ऐसा महामेरु नामक पर्वत विदेहक्षेत्र के मध्य में है, वही मानों गज (हाथी) हुआ, उस मेरुरूप गज से उत्तर दिशा में दो दन्तों के आकार से जो दो पर्वत निकले हैं, उनका नाम 'दो-गजदन्त' है और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं । उन दोनों गजदन्तों के मध्य में जो त्रिकोण आकार वाला उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका नाम 'उत्तरकुरु' है । उसके मध्य में मेरु की ईशान दिशा में सीता नदी और नील पर्वत के बीच में परमागम-कथित अनादि-अकृत्रिम तथा पृथ्वीकायिक जम्बूवृक्ष है । उसी सीता नदी के दोनों किनारों पर यमकगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहिए । उन दोनों यमकगिरि पर्वतों से दक्षिण दिशा में कुछ मार्ग चलने पर सीता नदी के बीच में कुछ-कुछ अन्तराल से पद्म आदि पाँच हृद हैं । उन हृदों के दोनों पसवाड़ों में से प्रत्येक पार्श्व में, लोकानुयोग के व्याख्यान के अनुसार, सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित जिनचैत्यालयों से भूषित दस-दस सुवर्ण पर्वत हैं । इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रय की आराधना करने वाले उत्तम पात्रों को परम भक्ति से दिये हुए आहार-दान के फल से उत्पन्न हुए तिर्यञ्च और मनुष्यों को, निज शुद्ध आत्मभावना से उत्पन्न होने वाला निर्विकार सदा आनन्दरूप सुखामृत रस के आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्ती के भोग-सुखों से भी अधिक, नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय सम्बन्धी भोग-सुखों के देने वाले ज्योतिरांग, गृहांग, दीपांग, तूर्यांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भाजनांग, भूषणांग तथा राग एवं मद को उत्पन्न करने वाले रसांग नामक, ऐसे दस प्रकार के कल्पवृक्ष भोगभूमियाँ क्षेत्र में स्थित हैं, इत्यादि परमागम कथित प्रकार से अनेक आश्चर्य समझने चाहिए । उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो दो-गजदन्त हैं उनके मध्य में उत्तरकुरु के समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि का क्षेत्र जानना चाहिए । उसी मेरु पर्वत से पूर्व दिशा में, पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन विस्तार वाला वेदी सहित भद्रशाल वन है । उससे पूर्व दिशा में कर्मभूमि नामक पूर्वविदेह है । वहाँ नील नामक कुलाचल से दक्षिण दिशा में और सीता नदी के उत्तर में मेरु की प्रदक्षिणा रूप से जो क्षेत्र है, उनके विभाग कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- मेरु से पूर्व दिशा में जो पूर्व भद्रशाल वन की वेदिका है, उससे पूर्व दिशा में प्रथम क्षेत्र है, उसके पश्चात् दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, उसके बाद क्षेत्र है, उसके आगे विभंगा नदी है, उसके आगे क्षेत्र है, उसके अनन्तर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है और फिर क्षेत्र है, उससे आगे फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, तदनन्तर पूर्व समुद्र के पास जो देवारण्य नामक वन है, उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों (दीवारों) से आठ क्षेत्र जानने चाहिए । क्रम से उनके नाम हैं- १. कच्छा, २. सुकच्छा, ३. महाकच्छा, ४. कच्छावती, ५. आवर्ता, ६. लांगलावर्ता, ७. पुष्कला और ८. पुष्कलावती । अब क्षेत्रों के मध्य में जो नगरियाँ हैं, उनके नाम कहते हैं- १. क्षेमा, २. क्षेमपुरी, ३. रिष्टा, ४. रिष्टपुरी, ५. खड्गा, ६. मंजूषा, ७. औषधी और ८. पुण्डरीकिणी । इसके ऊपर सीता नदी के दक्षिण भाग में निषध पर्वत से उत्तर भाग में जो आठ क्षेत्र हैं उनका कथन करते हैं । वे इस प्रकार हैं- पहले कही हुई जो देवारण्य की वेदी है उसके पश्चिम में क्षेत्र है, तदनन्तर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, तत्पश्चात् विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, पश्चात् विभंगा नदी है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे मेरु की पूर्व दिशा वाले पूर्व भद्रशाल वन की वेदी है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र जानने योग्य हैं । उन क्षेत्रों के नाम क्रम से कहते हैं- १. वच्छा, २. सुवच्छा, ३. महावच्छा, ४. वच्छावती, ५. रम्या, ६. रम्यका, ७. रमणीया और ८. मंगलावती । अब उन क्षेत्रों में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. सुसीमा, २. कुण्डला, ३. अपराजिता, ४. प्रभाकरी, ५. अंका, ६. पद्मा, ७. शुभा और रत्नसंचया । इस प्रकार पूर्व विदेहक्षेत्र के विभागों का व्याख्यान समाप्त हुआ । अब मेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन लम्बे पश्चिम भद्रशाल वन के बाद पश्चिम विदेहक्षेत्र है । वहाँ निषध पर्वत के उत्तर में और सीतोदा नदी के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभाग कहते हैं- मेरु की पश्चिम दिशा में जो पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है, उसके पश्चिम भाग में क्षेत्र है, उससे आगे दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, उससे आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके अनन्तर पश्चिम समुद्र के समीप जो भूतारण्य नामक वन है उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र होते हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. पद्मा, २. सुपद्मा, ३. महापद्मा, ४. पद्मकावती, ५. शंखा, ६. नलिना, ७. कुमुदा और ८. सलिला । उन क्षेत्रों के मध्य में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. अश्वपुरी, २. सिंहपुरी, ३. महापुरी, ४. विजयापुरी, ५. अरजापुरी, ६. विरजापुरी, ७. अशोकापुरी और ८. विशोकापुरी । अब सीतोदा के उत्तर में और नील कुलाचल के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभागभेद का वर्णन करते हैं- पहले कही हुई जो भूतारण्य वन की वेदिका है उसके पूर्व में क्षेत्र है, उसके बाद वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके बाद विभंगा नदी, उसके पीछे क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके बाद पुनः विभंगा नदी, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र, तदनन्तर विभंगा नदी, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र है । उसके अनन्तर मेरु की (पश्चिम) दिशा में स्थित पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के बीच में आठ क्षेत्र हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. वप्रा, २. सुवप्रा, ३. महावप्रा, ४. वप्रकावती, ५. गन्धा, ६. सुगन्धा, ७. गन्धिला और ८. गन्धमालिनी । उन क्षेत्रों के मध्य में वर्तमान नगरियों के नाम कहते हैं- १. विजया, २. वैजयन्ती, ३. जयन्ती, ४. अपराजिता, ५. चक्रपुरी, ६. खड्गपुरी, ७. अयोध्या और ८. अवध्या । अब, जैसे भरतक्षेत्र में गंगा और सिंधु इन दोनों नदियों से तथा विजयार्ध पर्वत से पाँच म्लेच्छ खण्ड और एक आर्य खण्ड ऐसे छह खण्ड हुए हैं, उसी तरह पूर्वोक्त बत्तीस विदेह क्षेत्रों में गंगा सिंधु समान दो नदियों और विजयार्ध पर्वत से प्रत्येक क्षेत्र के छह खण्ड जानने चाहिए । इतना विशेष है कि इन सब क्षेत्रों में सदा चौथे काल के आदि जैसा काल रहता है । उत्कृष्टता से कोटि पूर्व प्रमाण आयु है और पाँच सौ धनुष प्रमाण शरीर का उत्सेध है । पूर्व का प्रमाण कहते हैं- पूर्व का प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार कोड़ी वर्ष जानना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप में जम्बूद्वीप का व्याख्यान समाप्त हुआ । जैसे, सब द्वीप और समुद्रों में द्वीप और समुद्र की मर्यादा (सीमा) करने वाली आठ योजन ऊँची वज्र की वेदिका (दीवार) है, उसी प्रकार से जम्बूद्वीप में भी है, ऐसा जानना चाहिए । उस वेदिका के बाहर दो लाख-योजन चौड़ा, गोलाकार, शास्त्रोक्त सोलह हजार योजन जल की ऊँचाई (गहराई) आदि अनेक आश्चर्यों सहित लवणसमुद्र है; उसके बाहर चार लाख योजन गोल विस्तार वाला धातकीखण्डद्वीप है । वहाँ पर दक्षिण भाग में लवणोदधि और कालोदधि इन दोनों समुद्रों की वेदिका को छूने वाला, दक्षिण-उत्तर लम्बा, एक हजार योजन विस्तार वाला तथा चार सौ योजन ऊँचा इष्वाकार नामक पर्वत है । इसी प्रकार उत्तर भाग में भी एक इष्वाकार पर्वत है । इन दोनों पर्वतों से विभाजित, पूर्व धातकीखण्ड तथा पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग जानने चाहिए । पूर्व धातकीखण्ड द्वीप के मध्य में चौरासी हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन गहरा छोटा मेरु है । उसी प्रकार पश्चिम धातकीखण्ड में भी एक छोटा मेरु है । जैसे जम्बूद्वीप के महामेरु में भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, गंगा आदि नदी और पद्म आदि हृदों का दक्षिण व उत्तर दिशाओं सम्बन्धी व्याख्यान किया है; वैसा ही इस पूर्व धातकीखण्ड के मेरु और पश्चिम धातकीखण्ड के मेरु सम्बन्धी जानना चाहिए । इसी कारण धातकीखण्ड में जम्बू द्वीप की अपेक्षा संख्या में भरत क्षेत्र आदि दूने होते हैं, परन्तु लम्बाई चौड़ाई की अपेक्षा से दुगुने नहीं हैं । कुल पर्वत तो विस्तार की अपेक्षा ही दुगुने हैं, आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा दुगुने नहीं हैं । उस धातकीखण्डद्वीप में, जैसे चक्र के आरे होते हैं, वैसे आकार के धारक कुलाचल हैं । जैसे चक्र के आरों के छिद्र अन्दर की ओर तो संकीर्ण (सुकड़े) होते हैं और बाहर की ओर विस्तीर्ण (फैले हुए) होते हैं, वैसा ही क्षेत्रों का आकार समझना चाहिए । इस प्रकार जो धातकीखण्ड द्वीप है उसको आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदक समुद्र बेढ़े हुए है । उस कालोदक समुद्र के बाहर आठ लाख योजन चलकर पुष्करवर द्वीप के अर्ध भाग में गोलाकार रूप से चारों दिशाओं में मानुषोत्तर नामक पर्वत है । उस पुष्करार्ध द्वीप में भी धातकीखण्ड द्वीप के समान दक्षिण तथा उत्तर दिशा में इष्वाकार दो पर्वत हैं, पूर्व-पश्चिम में दो छोटे मेरु हैं । इसी प्रकार (धातकीखण्ड के समान) भरत आदि क्षेत्रों का विभाग जानना चाहिए । परन्तु जम्बूद्वीप के भरत आदि की अपेक्षा से यहाँ पर संख्या में दूने-दूने भरत आदि क्षेत्र हैं, धातकीखण्ड की अपेक्षा से भरत आदि दूने नहीं हैं । कुल पर्वतों का विष्कम्भ तथा आयाम धातकीखण्ड के कुल पर्वतों की अपेक्षा दुगुना है । दक्षिण में विजयार्ध पर्वत की ऊँचाई का प्रमाण पच्चीस योजन, हिमवत् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन, महाहिमवान् पर्वत की दो सौ योजन, निषध की चार सौ योजन प्रमाण है तथा उत्तर भाग में भी इसी प्रकार उत्सेध प्रमाण है । मेरु के समीप में गजदन्तों की ऊँचाई पाँच सौ योजन है और नील निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । वक्षार पर्वतों की ऊँचाई नदी के निकट तथा अन्त में नील और निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । मेरु को छोड़कर शेष पर्वतों की जो ऊँचाई जम्बूद्वीप में कही है सो ही पुष्करार्द्ध तक द्वीपों में जाननी चाहिए तथा क्षेत्र, पर्वत, नदी, देश, नगर आदि के नाम भी वे ही हैं, जो कि जम्बूद्वीप में हैं । इसी प्रकार दो कोस ऊँची, पाँच सौ धनुष चौड़ी पद्मराग रत्नमयी जो वन आदि की वेदिका है, वह सब द्वीपों में समान है । इस पुष्करार्ध द्वीप में भी चक्र के आरों के आकार समान पर्वत और आरों के छिद्रों के समान क्षेत्र जानने चाहिए । मानुषोत्तर पर्वत के भीतरी भाग में ही मनुष्य निवास करते हैं बाहरी भाग में नहीं । उन मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य के बराबर है । मध्य में मध्यम विकल्प बहुत से हैं तिर्यञ्चों की आयु भी मनुष्यों की आयु के समान है । इस प्रकार असंख्यात द्वीप-समुद्रों से विस्तरित तिर्यग्लोक के मध्य में ढाईद्वीप प्रमाण मनुष्यलोक का संक्षेप से व्याख्यान हुआ । अब मानुषोत्तर पर्वत से बाहरी भाग में, स्वयंभूरमण द्वीप के अर्धभाग को बेढ़कर जो नागेन्द्र नामक पर्वत है, उस पर्वत के पूर्व भाग में जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनमें व्यन्तर देव निरन्तर रहते हैं, इस वचनानुसार, यद्यपि व्यन्तर देवों के आवास हैं, तथापि एक पल्यप्रमाण आयु वाले तिर्यञ्चों की जघन्य भोगभूमि भी है, ऐसा जानना चाहिए । नागेन्द्र पर्वत से बाहर स्वयंभूरमण आधे द्वीप और पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र में विदेहक्षेत्र के समान, सदा ही कर्मभूमि और चतुर्थकाल रहता है । परन्तु वहाँ पर मनुष्य नहीं हैं । इस प्रकार तिर्यग्लोक के तथा उस तिर्यक् लोक के मध्य में विद्यमान मनुष्य-लोक के निरूपण द्वारा मध्य लोक का व्याख्यान समाप्त हुआ । मनुष्य लोक में तीन सौ अट्ठानवे (३९८) और तिर्यक् लोक में नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डल द्वीप तथा रुचक द्वीप इन तीन द्वीपों सम्बन्धी क्रमशः बावन, चार, चार अकृत्रिम स्वतन्त्र चैत्यालय जानने चाहिए । (मध्यलोक में सब अकृत्रिम चैत्यालय ४५८ हैं) । इसके पश्चात् ज्योतिष्कलोक का वर्णन करते हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तारा ऐसे ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के होते हैं । उनमें से इस मध्य लोक के पृथ्वीतल से सात सौ नब्बे योजन ऊपर आकाश में तारों के विमान हैं, तारों से दस योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं । उससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा के विमान हैं । उसके अनन्तर, त्रिलोकसार कथित क्रमानुसार, चार योजन ऊपर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं । उसके पश्चात् चार योजन ऊपर बुध के विमान हैं । उसके अनन्तर तीन योजन ऊपर शुक्र के विमान हैं । वहाँ से तीन योजन ऊपर बृहस्पति के विमान हैं । उसके पश्चात् तीन योजन पर मंगल के विमान हैं । वहाँ से भी तीन योजन के अन्तर पर शनैश्चर के विमान हैं । सो ही कहा है- सात सौ नब्बे, दस, अस्सी, चार, चार, तीन, तीन, तीन और तीन योजन ऊपर क्रम से तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर के विमान हैं । वे ज्योतिष्क देव ढाईद्वीप में मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए सदा परिभ्रमण करते हैं । निमिष आदि सूक्ष्म व्यवहार काल के समान घटिका, पहर, दिवस आदि स्थूल व्यवहारकाल भी, समय-घटिका आदि विवक्षित भेदों से रहित तथा अनादिनिधन कालाणुद्रव्यमयी निश्चयकाल रूप उपादान से यद्यपि उत्पन्न होता है; तो भी, निमित्तभूत कुम्भकार के द्वारा उपादान रूप मृत्तिकापिण्ड से घट प्रकट होने की तरह, उन ढाईद्वीप में चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमनागमन से यह व्यवहारकाल प्रकट किया जाता है तथा जाना जाता है; इस कारण उपचार से व्यवहार काल ज्योतिष्क देवों का किया हुआ है, ऐसा कहा जाता है । कुम्भकार के चाक के भ्रमण में बहिरंग सहकारी कारण नीचे की कीली के समान, निश्चयकाल तो, उन ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमन रूप परिणमन में बहिरंग सहकारी कारण होता है । अब ढाईद्वीपों में जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनकी संख्या बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं, लवणोदक समुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीप में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं, कालोदक समुद्र में ४२ चन्द्रमा और ४२ सूर्य हैं तथा पुष्करार्ध द्वीप में ७२ चन्द्रमा और ७२ ही सूर्य हैं । इसके अनन्तर भरत और ऐरावत में स्थित जम्बूद्वीप के चन्द्र-सूर्य का कुछ थोड़ा-सा विवरण कहते हैं । वह इस तरह है- जम्बूद्वीप के भीतर एक सौ अस्सी और बाहरी भाग में अर्थात् लवणसमुद्र के तीन सौ तीस योजन, ऐसे दोनों मिलकर पाँच सौ दस योजन प्रमाण सूर्य का चार क्षेत्र (गमन का क्षेत्र) कहलाता है । सो चन्द्र तथा सूर्य इन दोनों का एक ही गमन क्षेत्र है । भरतक्षेत्र और बाहरी भाग के चार क्षेत्र में सूर्य के एक सौ चौरासी मार्ग (गली) हैं और चन्द्र के पन्द्रह ही मार्ग हैं । उनमें जम्बूद्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन जब दक्षिणायन प्रारम्भ होता है, तब निषध पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य प्रथम उदय करता है । वहाँ पर सूर्य विमान में स्थित निर्दोषपरमात्म-जिनेन्द्र के अकृत्रिम जिनबिम्ब को, अयोध्यानगरी में स्थित भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती प्रत्यक्ष देखकर निर्मल सम्यक्त्व के अनुराग से पुष्पांजलि उछालकर अर्घ देता है । उस प्रथम मार्ग में स्थित भरतक्षेत्र के सूर्य का ऐरावत क्षेत्र के सूर्य के साथ तथा चन्द्रमा का चन्द्रमा के साथ और भरत क्षेत्र के सूर्य चन्द्रमाओं का मेरु के साथ जो अन्तर (फासला) रहता है, उसका विशेष कथन आगम से जानना चाहिए । अब "शतभिषा (शतभिषक्), भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र जघन्य हैं । रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद, ये छह नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष १५ नक्षत्र मध्यम है । इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार जो जघन्य, उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्र में कितने दिन सूर्य ठहरता है, सो कहते हैं- एक मुहूर्त में चन्द्र १७६८, सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखण्डों में गमन करते हैं, इसलिए ६७ व ५ (१८३५-१७६८-६७,१८३५-१८३०=५) अधिक भागों से नक्षत्रखण्डों को भाग देने से जो मुहूर्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूर्तों को चन्द्र और सूर्य के आसन्न मुहूर्त जानने चाहिए । अर्थात् एक नक्षत्र पर उतने मुहूर्तों तक चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति जाननी चाहिए ।" इस प्रकार इस गाथा में कहे हुए क्रम से भिन्न-भिन्न दिनों को जोड़ने से तीन सौ छियासठ दिन होते हैं । जब द्वीप के भीतर से दक्षिण दिशा के बाहरी मार्गों में सूर्य गमन करता है, तब तीन सौ छियासठ दिनों के आधे एक सौ तिरासी दिनों की दक्षिणायन संज्ञा होती है और इसी प्रकार जब सूर्य समुद्र से उत्तर दिशा के अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष १८३ दिनों की उत्तरायण संज्ञा है । उनमें जब द्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन दक्षिणायन के प्रारम्भ में सूर्य प्रथम मार्ग की परिधि में होता है, तब सूर्य-विमान के आतप (धूप) का पूर्व-पश्चिम फैलाव चौरानवे हजार पाँच सौ पच्चीस योजन प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए । उस समय अठारह मुहूर्तों का दिन और बारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । फिर यहाँ से क्रम-क्रम से आतप की हानि होने पर दो मुहूर्तों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन घटता है । यह तब तक घटता है जब तक कि लवणसमुद्र के अन्तिम मार्ग में माघ मास में मकर संक्रान्ति में उत्तरायण दिवस के प्रारम्भ में जघन्यता से सूर्य-विमान के आतप का पूर्व-पश्चिम विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजन प्रमाण होता है । उसी प्रकार इस समय बारह मुहूर्तों का दिन और अठारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । अन्य विशेष वर्णन लोकविभाग आदि से जानना चाहिए । मनुष्य क्षेत्र से बाहर ज्योतिष्क-विमानों का गमन नहीं है । वे मानुषोत्तर पर्वत के बाहर पचास हजार योजन जाने पर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्ति क्रम से पहले क्षेत्र को बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । वहाँ प्रथम वलय में एक सौ चवालीस चन्द्रमा तथा सूर्य परस्पर अन्तर (फासले) से स्थित हैं, उसके आगे एक-एक लाख योजन जाने पर इसी क्रमानुसार एक-एक वलय होता है । विशेष यह है कि प्रत्येक वलय में चार-चार चन्द्रमा तथा चार-चार सूर्यों की वृद्धि पुष्करार्ध के बाह्य भाग में आठवें वलय तक होती है । उसके बाद पुष्करसमुद्र के प्रवेश में स्थित वेदिका से पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, प्रथम वलय में, एक सौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्य का जो पहले कथन किया है, उससे दुगुने (दो सौ अट्ठासी) चन्द्रमा व सूर्यों वाला पहला वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक-एक लाख योजन जाने पर एक-एक वलय है । प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्यों की वृद्धि होती है । इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्र की अन्त की वेदिका तक ज्योतिष्क देवों का अवस्थान जानना चाहिए । जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ये ज्योतिष्कविमान अकृत्रिम सुवर्ण तथा रत्नमय जिनचैत्यालयों से भूषित हैं, ऐसा समझना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से ज्योतिष्क लोक का वर्णन समाप्त हुआ । अब इसके अनन्तर ऊर्ध्व लोक का कथन करते हैं । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँ से आगे नव ग्रैवेयक विमान हैं । उनके ऊपर नवअनुदिश नामक ९ विमानों का एक पटल है, इसके भी ऊपर पाँच विमानों की संख्या वाला पंचानुत्तर नामक एक पटल है, इस प्रकार उक्त क्रम से वैमानिक देव अवस्थित हैं । यह वार्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदाय से कथन है । आदि में बारह, मध्य में आठ और अन्त में चार योजन प्रमाण गोल व्यासवाली चालीस योजन ऊँची मेरु की चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य के बाल के अग्रभाग प्रमाण के अन्तर से ऋजु विमान है । चूलिका सहित एक लाख योजन प्रमाण मेरु की ऊँचाई का प्रमाण है, उस मान को आदि करके डेढ़ राजू प्रमाण जो आकाश क्षेत्र है वहाँ तक सौधर्म तथा ईशान नामक दो स्वर्ग हैं । इसके ऊपर डेढ़ राजूपर्यन्त सानत्कुमार और माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से अर्धराजू प्रमाण आकाश तक ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर नामक स्वर्गों का युगल है । वहाँ से भी आधे राजू तक लान्तव और कापिष्ट नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से आधे राजूप्रमाण आकाश में शुक्र तथा महाशुक्र नामक स्वर्गों का युगल जानना चाहिए । उसके बाद आधे राजू तक शतार और सहस्रार नामक स्वर्गों का युगल है । उसके पश्चात् आधे राजू तक आनत व प्राणत दो स्वर्ग हैं । तदनन्तर आधे राजू पर्यन्त आकाश तक आरण और अच्युत नामक दो स्वर्ग जानने चाहिए । उनमें से पहले के दो युगलों (४ स्वर्गों) में तो अपने-अपने स्वर्ग के नाम वाले (सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र) चार इन्द्र हैं, बीच के चार युगलों (८ स्वर्गों) में अपने-अपने प्रथम स्वर्ग के नाम का धारक एक-एक ही इन्द्र है (अर्थात् ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग का एक इन्द्र है और वह ब्रह्म इन्द्र कहलाता है । ऐसे ही बारहवें स्वर्ग तक आठ स्वर्गों में चार इन्द्र जानने चाहिए) इनके ऊपर दो युगलों (४ स्वर्गों) में भी अपने-अपने स्वर्ग के नाम के धारक चार इन्द्र होते हैं । इस प्रकार समुदाय से सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र जानने चाहिए । सोलह स्वर्गों से ऊपर एक राजू में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देव हैं । उसके आगे बारह योजन जाने पर आठ योजन मोटी और ढाईद्वीप के बराबर पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली मोक्षशिला है । उस मोक्षशिला के ऊपर घनोदधि, घनवात तथा तनुवात नामक तीन वायु हैं । इनमें से तनुवात के मध्य में तथा लोक के अन्त में केवलज्ञान आदि अनन्त-गुणों सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं । अब स्वर्ग के पटलों की संख्या बतलाते हैं । सौधर्म और ईशान इन दो स्वर्गों में इकत्तीस, सानत्कुमार तथा माहेन्द्र में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में चार, लान्तव तथा कापिष्ट में दो, शुक्र-महाशुक्र में एक, शतार-सहस्रार में एक, आनत-प्राणत में तीन और आरण-अच्युत में भी तीन पटल हैं । नव ग्रैवेयकों में नौ, नव अनुदिशों में एक व पंचानुत्तरों में एक पटल है । ऐसे समुदाय से ऊपर-ऊपर ६३ पटल जानने चाहिए । सो ही कहा है सौधर्म युगल में ३१, सानत्कुमार युगल में ७, ब्रह्म युगल में ४, लान्तव युगल में २, शुक्र युगल में १, शतार युगल में १, आनत आदि चार स्वर्गों में ६, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयकों में तीन-तीन, नव अनुदिश में १, पंचानुत्तरों में एक, ऐसे समुदाय से ६३ इन्द्रक होते हैं । इसके आगे प्रथम पटल का व्याख्यान करते हैं । मेरु की चूलिका के ऊपर मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विस्तार वाले पूर्वोक्त ऋजु विमान की इन्द्रक संज्ञा है । उसकी चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में, सब द्वीप समुद्रों के ऊपर, असंख्यात योजन विस्तार वाले पंक्तिरूप ६३-६३ विमान हैं; उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है । पंक्ति बिना पुष्पों के समान चारों विदिशाओं में संख्यात व असंख्यात योजन विस्तार वाले जो विमान हैं, उन विमानों की प्रकीर्णक संज्ञा है । इस प्रकार समुदाय से प्रथम पटल का लक्षण जानना चाहिए । उन विमानों में से पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन श्रेणियों के विमान और इन तीनों दिशाओं के बीच में दो विदिशाओं के विमान, ये सब सौधर्म प्रथम स्वर्ग सम्बन्धी हैं तथा शेष दो विदिशाओं के विमान और उत्तर श्रेणी के विमान, वे ईशान स्वर्ग सम्बन्धी हैं । भगवान् द्वारा देखे प्रमाण अनुसार, इस पटल के ऊपर संख्यात तथा असंख्यात योजन जाकर इसी क्रम से द्वितीय आदि पटल हैं । विशेष यह है कि प्रत्येक पटल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में एक-एक विमान घटता गया है, सो यहाँ तक घटता है कि पंचानुत्तर पटल में चारों दिशाओं में एक-एक ही विमान रह जाता है । सौधर्म स्वर्ग आदि सम्बन्धी ये सब विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस अकृत्रिम सुवर्णमय जिन चैत्यालयों से मण्डित हैं, ऐसा जानना चाहिए । अब देवों की आयु का प्रमाण कहते हैं- भवन वासियों में दस हजार वर्ष की जघन्य आयु है । व्यन्तरों में दस हजार वर्ष की जघन्य और कुछ अधिक एक पल्य की उत्कृष्ट आयु है । ज्योतिष्क देवों में जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है । चन्द्रमा की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य और सूर्य की एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । शेष ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु आगम के अनुसार जाननी चाहिए । सौधर्म तथा ईशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर है । सानत्कुमार तथा माहेन्द्र देवों में कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दस सागर, लान्तव-कापिष्ठ में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र- महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणत में पूरे बीस ही सागर और आरण-अच्युत में बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर अच्युत स्वर्ग से ऊपर कल्पातीत नव ग्रैवेयकों तक प्रत्येक ग्रैवेयक में क्रमशः बाईस सागर से एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट आयु है, तदनुसार अन्त के ग्रैवेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है । नव अनुदिश पटल में बत्तीस सागर और पंचानुत्तर पटल में तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिए तथा सौधर्म आदि स्वर्गों में जो उत्कृष्ट आयु है, सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त, वह उत्कृष्ट आयु अपने स्वर्ग से ऊपर-ऊपर के स्वर्ग में जघन्य आयु है । (अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्ग में कुछ अधिक दो सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है, वह सानत्कुमार माहेन्द्र में जघन्य है । इस क्रम से सर्वार्थसिद्धि के पहले-पहले जघन्य आयु है ।) शेष विशेष व्याख्यान त्रिलोकसार आदि से जानना चाहिए । विशेष - आदि, मध्य तथा अन्तरहित, शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभाव परमात्मदेव में पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं । इस कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चयलोक है अथवा उस निश्चय लोक वाले निज शुद्ध परमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चयलोक है । संज्ञा, तीन लेश्या, इंद्रियों के वश होना, आर्त-रौद्र-ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पाप को देने वाले हैं । इस गाथा में कहे हुए विभाव परिणाम आदि सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों के त्याग से और निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है, वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है, शेष व्यवहार से है । इस प्रकार संक्षेप से लोकानुप्रेक्षा का वर्णन समाप्त हुआ ॥१०॥ - अब बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा को कहते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, नीरोग, दीर्घ आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता, क्रोध आदि कषायों से निवृत्ति, ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । कदाचित् काकतालीय न्याय से इन सबके प्राप्त हो जाने पर भी, इनकी प्राप्ति रूप बोधि के फलभूत जो निज शुद्ध आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परम समाधि है, वह दुर्लभ है । शंका- परम समाधि दुर्लभ क्यों है? समाधान- परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीवों में प्रबलता है इसलिए परम-समाधि का होना दुर्लभ है । इस कारण उस परमसमाधि की ही निरन्तर भावना करनी चाहिए क्योंकि उस भावना से रहित जीवों का फिर भी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है-
जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधि को प्राप्त होकर, प्रमादी होता है वह बेचारा संसाररूपी भयंकर वन में चिरकाल तक भ्रमण करता है ।१। मनुष्यभव की दुर्लभता के विषय में भी कहा है- अशुभ परिणामों की अधिकता, संसार की विशालता और बड़ी-बड़ी योनियों की अधिकता, ये सब बातें मनुष्य योनि को दुर्लभ बनाती है । बोधि व समाधि का लक्षण कहते हैं- पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाती है और उन्हीं सम्यग्दर्शन आदिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । इस प्रकार संक्षेप से दुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ ॥११॥ - अब धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं- संसार में गिरते हुए जीव को उठाकर, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदि द्वारा पूज्य अथवा बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त-गुणरूप मोक्ष पद में जो धरता है वह धर्म है । उस धर्म के भेद कहे जाते हैं- अहिंसा लक्षण वाला, गृहस्थ और मुनि इन लक्षण वाला, उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाला, निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय-स्वरूप अथवा शुद्ध आत्मानुभवरूप मोह-क्षोभरहित आत्म परिणाम वाला धर्म है । परम-स्वास्थ्य-भावना से उत्पन्न व व्याकुलतारहित पारमार्थिक सुख से विलक्षण तथा पाँचों इन्द्रियों के सुखों की वांछा से उत्पन्न और व्याकुलता करने वाले दु:खों को सहते हुए, इस जीव ने ऐसे धर्म की प्राप्ति न होने से नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पति में सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, जलकाय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय व चार इन्द्रिय में दो-दो लाख, देव, नारकी व तिर्यञ्च में चार-चार लाख तथा मनुष्यों में चौदह लाख योनि इस गाथा में कही हुई चौरासी लाख योनियों में, अतीत अनन्त काल तक परिभ्रमण किया है । जब इस जीव को पूर्वोक्त प्रकार के धर्म की प्राप्ति होती है तब राजाधिराज, महाराज, अर्धमण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, गणधरदेव, तीर्थंकर परमदेव के पदों तथा तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप कल्याणक तक अनेक प्रकार के वैभव सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षय अनन्त गुणों के स्थानभूत अरहन्त पद को और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इस कारण धर्म ही परम रस के लिए रसायन, निधियों की प्राप्ति के लिए निधान, कल्पवृक्ष, कामधेनु गाय और चिन्तामणि रत्न है । विशेष क्या कहें, जो जिनेन्द्रदेव के कहे हुए धर्म को पाकर दृढ़ बुद्धिधारी (सम्यग्दृष्टि) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है-
जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट धर्म से जो प्रतिबोध को प्राप्त हुए वे धन्य हैं तथा जिन आत्मानुभव में संलग्न बुद्धि वालों ने धर्म को ग्रहण किया वे सब धन्य हैं ।१। इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥१२॥
इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण वाली, अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मतत्त्व के अनुचिन्तन संज्ञा (नाम) वाली और आस्रवरहित शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणतिरूप संवर की कारणभूत बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन समाप्त हुआ । अब परीषहजय का कथन करते हैं- १. क्षुधा, २. प्यास, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक (डांस-मच्छर), ६. नग्नता, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या (बैठना), ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध,१४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कारपुरस्कार, २०. प्रज्ञा (ज्ञान का मद), २१. अज्ञान और २२. अदर्शन ये बाईस परीषह जानने चाहिए । इन क्षुधा आदि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि में समतारूप परम सामायिक के द्वारा तथा नवीन शुभ-अशुभ कर्मों के रुकने और पुराने शुभ-अशुभ कर्मों की निर्जरा के सामर्थ्य से इस जीव का, निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से, विचलित नहीं होना, सो परीषहजय है । अब चारित्र का कथन करते हैं- शुद्ध उपयोग लक्षणात्मक निश्चय रत्नत्रयमयी परिणतिरूप आत्मस्वरूप में जो आचरण या स्थिति, सो चारित्र है । यह तारतम्य भेद से पाँच प्रकार का है । तथा सब जीव केवलज्ञानमय हैं, ऐसी भावना से जो समता परिणाम का होना सो सामायिक है । अथवा परम स्वास्थ्य के बल से युगपत् समस्त शुभ, अशुभ संकल्प-विकल्पों के त्यागरूप जो समाधि (ध्यान), वह सामायिक है । अथवा निर्विकार आत्म-अनुभव के बल से राग द्वेष परिहार (त्याग) रूप सामायिक है अथवा शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से आर्त-रौद्र-ध्यान के त्याग स्वरूप सामायिक है अथवा समस्त सुख-दुखों में मध्यस्थ भावरूप सामायिक है । अब छेदोपस्थापन का कथन करते हैं- जब एक ही साथ समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब “समस्त हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति सो व्रत है" इन पाँच प्रकार भेद विकल्प रूप व्रतों का छेद होने से राग आदि विकल्परूप सावधों से अपने आपको छुड़ा कर निज शुद्ध आत्मा में अपने को उपस्थापन करना छेदोपस्थापना है । अथवा छेद अर्थात् व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से और उसके साधकरूप बहिरंग व्यवहार प्रायश्चित्त से निज आत्मा में स्थित होना, छेदोपस्थापन है । परिहार विशुद्धि का कथन करते हैं जो जन्म से ३० वर्ष सुख से व्यतीत करके वर्ष पृथक्त्व (८ वर्ष) तक तीर्थंकर के चरणों में प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व को पढ़कर तीनों संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करता है ।१। इस गाथा में कहे क्रम अनुसार मिथ्यात्व, राग आदि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके विशेष रूप से जो आत्म-शुद्धि अथवा निर्मलता, सो परिहारविशुद्धि चारित्र है । अब सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं- सूक्ष्म अतीन्द्रिय निज शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से सूक्ष्मलोभ नामक साम्पराय-कषाय का पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण (क्षय) जहाँ होता है सो सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है । अब यथाख्यात चारित्र कहते हैं-जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध-स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया, सो यथाख्यात चारित्र है । अब गुणस्थानों में सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र का कथन करते हैं- प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक चार गुणस्थानों में सामायिक-छेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र-प्रमत्त, अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होता है । सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र-एक सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान में ही होता है । यथाख्यात चारित्र-उपशान्तकषाय, क्षीण कषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन इन चार गुणस्थानों में होता है । अब संयम के प्रतिपक्षी (संयमासंयम और असंयम) का कथन करते हैं- दार्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमारूप संयमासंयम नाम वाला देश चारित्र, एक पंचम गुणस्थान में ही जानना चाहिए । असंयम-मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत-सम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार चारित्र का व्याख्यान समाप्त हुआ । इस प्रकार भावसंवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय के साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के निरूपण करने वाले जो वाक्य हैं, वे पापास्रव के संवर में कारण जानने चाहिए । जो व्यवहार रत्नत्रय से साध्य शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य-पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए । यहाँ सोम नामक राजसेठ कहता है कि हे भगवन्! इन व्रत, समिति आदिक संवर के कारणों में संवरानुप्रेक्षा ही सारभूत है, वही संवर कर देगी फिर विशेष प्रपंच से क्या प्रयोजन? भगवान् (नेमिचन्द्र) उत्तर देते हैं- मन, वचन, काय इन तीनों की गुप्तिस्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनि के तो उस संवर अनुप्रेक्षा से ही संवर हो जाता है; किन्तु उसमें असमर्थ जीवों के अनेक प्रकार से संवर का प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रत आदि का कथन करते हैं । क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानियों के ६७ और वैनयिकों के ३२, ऐसे कुल मिलाकर तीन सौ तिरेसठ भेद पाखण्डियों के हैं ॥१॥ योग से प्रकृति और प्रदेश तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है और जिसके कषाय का उदय नहीं है तथा कषायों का क्षय हो गया है, ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल (एक समय वाला) बन्ध स्थिति का कारण नहीं है ॥२॥॥३५॥ इस प्रकार संवर तत्त्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ । अब सम्यग्दृष्टि जीव के संवर-पूर्वक निर्जरा तत्त्व को कहते हैं --
(वदसमिदीगुत्तीओ) व्रत, समिति, गुप्तियाँ धम्माणुपेहा धर्म और अनुप्रेक्षा, (परीसहजओ य) और परीषहों का जीतना, (चारित्तं बहुभेया) अनेक प्रकार का चारित्र, (णायव्वा भावसंवरविसेसा) ये सब मिलकर भावसंवर के भेद जानने चाहिए । अब इसको विस्तार से कहते हैं -- निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ-अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है । व्यवहारनय से उस निश्चय व्रत को साधने वाला हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से जीवन भर त्याग रूप पाँच प्रकार का व्रत है । निश्चयनय की अपेक्षा अनन्तज्ञान आदि स्वभाव धारक निज आत्मा है, उसमें 'सम' भले प्रकार, अर्थात् समस्त रागादि विभागों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदिरूप से जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो समिति है । व्यवहार से उस निश्चय समिति के बहिरंग सहकारी कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रन्थों में कही हुई ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं । निश्चय से सहज शुद्ध आत्म-भावनारूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत रागादि के भय से अपने आत्मा का जो छिपाना, प्रच्छादन, झम्पन, प्रवेशन या रक्षा करना है, सो गुप्ति है । व्यवहारनय से बहिरंग साधन के अर्थ जो मन, वचन, काय की क्रिया को रोकना सो गुप्ति है । निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे (बचावे) सो विशुद्ध ज्ञान, दर्शन, लक्षणमयी निज शुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से जो वन्दने योग्य पद है, उसमें पहुँचाने वाला उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यरूप दस प्रकार का धर्म है ।
वे धर्म इस प्रकार हैं -- - जो समिति पालन में प्रवृत्तिरूप हैं, उनके प्रमाद को दूर करने के लिए धर्म का निरूपण किया गया है । क्रोध उत्पन्न होने में निमित्तीभूत ऐसे असह्य दुर्वचन आदि के अवसर प्राप्त होने पर कलुषता का न होना क्षमा है अर्थात् शरीर की स्थिति का कारण जो शुद्ध आहार उसकी खोज के लिए पर-कुलों (गृहों) में जाते हुए मुनि को दुष्टजनों द्वारा गाली, हास्य, निरादर के वचन कहे जाने पर भी तथा ताड़न, शरीर-घात इत्यादि क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त कारण मिलने पर भी परिणामों में मलिनता न आना, इस ही का नाम क्षमा कहा गया है ॥१॥
- उत्तम जाति आदि मद के आवेग से अभिमान का न होना मार्दव है ॥२॥ योगों की अकुटिलता आर्जव है अर्थात् मन-वचन-कायरूप योगों की सरलता को आर्जव कहा गया है ॥३॥
- सज्जनों से साधुवचन बोलना सत्य है अर्थात् प्रशस्त एवं श्रेष्ठ सज्जन पुरुषों से जो समीचीन वचन बोलना, वह सत्य कहलाता है ॥४॥
- लोभ की निवृत्ति की प्रकर्षता होना, शौच है । शुचि नाम पवित्रता का है, शुचि के भाव व कर्म को शौच कहते हैं ॥५॥
- समितियों के पालन करने वाले मुनिराज का प्राणियों की रक्षा करना तथा इन्द्रियों के विषयों का निषेध संयम है, अर्थात् ईर्यासमिति आदि में प्रवर्तमान मुनि का उनकी (समिति की) प्रतिपालना के लिए प्राणीपीड़ापरिहार एवं इंद्रियविषयासक्तिपरिहार को संयम कहते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का त्याग प्राणिसंयम है, शब्दादि इन्द्रियविषयों में राग का लगाव न होना इन्द्रिय-संयम है । उस संयम का विशेष निरूपण करने के लिए अथवा उसकी पालना के लिए अष्टशुद्धियों का उपदेश है । वे अष्टशुद्धि इस प्रकार हैं- भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनमें
- भावशुद्धि कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है, मोक्षमार्ग में रुचि होने से परिणामों को निर्मल करने वाली है तथा रागादि विकार से रहित है ।१।
- कायशुद्धि - आवरण एवं आभूषणों से रहित, समस्त संस्कारों से अतीत, बालक (यथाजात) के समान धूलि-धूसरित देह को धारण करने वाला शरीर विकारों से रहित है ।२।
- विनयशुद्धि - परम गुरु अरहन्तादि की यथायोग्य पूजा में तत्परता जहाँ रहती है, ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति जहाँ की जाती है, गुरु के प्रति जहाँ सर्वत्र अनुकूल वृत्ति होती है ।३।
- ईर्यापथ शुद्धि - नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के स्थान तथा योनिरूप आश्रयों का बोध होने से ऐसा प्रयत्न करना जिससे जीवों को पीड़ा न हो, ज्ञानरूपी सूर्य से एवं इन्द्रियों से तथा प्रकाश से भले प्रकार देखे हुए प्रदेश में गमन करना, जल्दी चलना, देर से चलना, चंचल उपयोग सहित चलना, साश्चर्य चलना, क्रीड़ा करते हुए चलना, विकार-युक्त चलना, इधर-उधर दिशाओं में देखते हुए चलना, इत्यादि चलने सम्बन्धी दोषों से रहित गमन करना ।४।
- भिक्षाशुद्धि - आचारसूत्र में कहे अनुसार काल, देश, प्रकृति का बोध करना, लाभ-अलाभ, मान-अपमान में समान मनोवृत्ति का रहना; लोकनिंद्य परिवारों में आहार के लिए नहीं जाना, चन्द्रमा की गति के समान कम और अधिक गृहों की जिसमें मर्यादा हो, विशेष रूप से जो स्थान दीन-अनाथों के लिए दानशाला हो अथवा विवाह तथा यज्ञ जिस गृह में हो रहे हों, ऐसे स्थानों में आहार के लिए चर्या नहीं करना । (अन्तराय एवं अनेक उपवासों के पश्चात् भी) दीन-वृत्ति का न होना । प्रासुक आहार खोजना ही जहाँ मुख्य लक्ष्य है । आगम विधि के अनुसार निर्दोष भोजन की प्राप्ति से प्राणों की स्थिति मात्र है लक्ष्य जिसमें, ऐसी भिक्षाशुद्धि है ।५।
- प्रतिष्ठापनशुद्धि - नख,रोम, नासिका,मल, कफ, वीर्य, मल-मूत्र की क्षेपणक्रिया में तथा शरीर की उठने-बैठने की क्रिया इत्यादि में जन्तुओं को बाधा न होने देना ।६।
- शयनासनशुद्धि- स्त्री, क्षुद्र पुरुष, चोर, मद्यपायी, जुआरी, मद्य-विक्रेता तथा पक्षियों को पकड़ने वाले आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिए । प्राकृतिक गिरि-गुफा, वृक्ष का कोटर तथा कृत्रिम सूने घर, छूटे हुए वा छोड़े हुए स्थानों में, जो अपने लिए नहीं बनाये गये हों, बसना चाहिए ।७।
- वाक्यशुद्धि - पृथिवीकायिकादि सम्बन्धी आरम्भ आदि की प्रेरणा जिसमें न हो, जो कठोर निष्ठुर और परपीडाकारी प्रयोगों से रहित हो, व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो, हित-मित-मधुर मनोहर और संयमी के योग्य हो, ऐसी वाक्यशुद्धि है ।८।
इस प्रकार संयम के अन्तर्गत आठ शुद्धियों का वर्णन हुआ । - कर्मक्षय के लिए जो तपा जाये वह तप है । वह तप दो प्रकार का है- बाह्य तप, अन्तरंग तप । इनमें से प्रत्येक छह प्रकार का है ॥७॥
- परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । चेतन-अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं अथवा संयमी के योग्य ज्ञानादि के दान को भी त्याग कहा गया है ॥८॥
- "यह मेरा है" इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिंचन्य है अर्थात् जो शरीरादि प्राप्त परिग्रह हैं उनमें संस्कार न रहे, इसके लिए "यह मेरा है" इस अभिप्राय की निवृत्ति को आकिंचन्य के नाम से कहा गया है । जिसके कुछ भी (परिग्रह) नहीं है वह अकिंचन है उसका जो भाव अथवा कर्म उसे आकिंचन्य कहते हैं ॥९॥
- अनुभूत स्त्री का स्मरण, उसकी कथा का श्रवण तथा स्त्री संसक्त शय्या, आसन आदि स्थान के त्याग से ब्रह्मचर्य है अर्थात् "मैंने उस कलागुणविशारदा स्त्री को भोगा था" ऐसा स्मरण, उसकी पूर्व कथा का श्रवण एवं रतिकालीन सुगन्धित द्रव्यों की सुवास तथा स्त्रीसंसक्तशय्या आसन आदि के त्याग से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गुरु स्वरूप ब्रह्म जो शुद्ध आत्मा, उसमें चर्या होना ब्रह्मचर्य है ॥१०॥
इस प्रकार दस धर्म हैं ।
बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन किया जाता है- अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है । इनको विस्तार से कहते हैं
- अध्रुव अनुप्रेक्षा कहते हैं - द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव से अविनाशी स्वभाव वाले निज परमात्म द्रव्य से भिन्न, अशुद्ध निश्चयनय से जो जीव के रागादि विभावरूप भावकर्म एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म व शरीरादि नोकर्मरूप तथा (उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से) उसके स्व-स्वामि-भाव सम्बन्ध से ग्रहण किये हुए स्त्री आदि चेतन द्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतन द्रव्य और चेतन-अचेतन मिश्र पदार्थ, उक्त लक्षण वाले ये सब पदार्थ अध्रुव (नाशवान) हैं; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए । ऐसी भावना वाले पुरुष के, उन स्त्री आदि पदार्थों के वियोग होने पर भी, जूठे भोजन के समान, ममत्व नहीं होता । उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा को ही भेद, अभेद रूप रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है । जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अध्रुव भावना है ॥१॥
- अशरण अनुप्रेक्षा को कहते हैं - निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, ये दोनों शरण (रक्षक) हैं । उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भौंहरा, मणि, मन्त्र, तन्त्र, आज्ञा, प्रासाद (महल) औषधि और आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरण आदि के समय शरण नहीं होते; जैसे महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को कोई शरण नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए । अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर, आगामी भोगों की वांछारूप निदानबन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभव से उत्पन्न सुख रूप अमृत के धारक निज-शुद्ध-आत्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्ध-आत्मा की भावना करता है । जैसी शरणभूत आत्मा का यह चिन्तन करता है, वैसे ही सदा शरणभूत, शरण में आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज-शुद्धात्मा को प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥२॥
- संसारानुप्रेक्षा -
- शुद्ध-आत्मद्रव्य से भिन्न सपूर्व (पुराने), अपूर्व (नये) तथा मिश्र ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म रूप से तथा शरीरपोषण के लिए भोजनपान आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय रूप से इस जीव ने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है, इस प्रकार द्रव्यसंसार है ।
- निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य सम्बन्धी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न लोक-क्षेत्र के सर्व प्रदेशों में एक-एक प्रदेश को व्याप्त करके, अनन्त बार यह जीव उत्पन्न न हुआ हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है । यह क्षेत्रसंसार है ।
- निज-शुद्धात्म अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि का काल छोड़कर (प्राप्त न करके) दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्सर्पिणीकाल और दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणीकाल के एक-एक समय में अनेक परावर्तन करके यह जीव अनन्त बार जन्मा न हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी समय नहीं है । इस प्रकार कालसंसार है ।
- अभेद रत्नत्रयात्मक ध्यान के बल से सिद्धगति में निज-आत्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध पर्याय रूप उत्पाद के सिवाय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के भवों में निश्चय रत्नत्रय की भावना से रहित और भोग-वांछादि निदान सहित द्रव्यतपश्चरणरूप मुनिदीक्षा के बल से नव ग्रैवेयक तक प्रथम स्वर्ग का इन्द्र, प्रथम स्वर्ग की इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशा के इन्द्र, लोकपाल और लौकान्तिकदेव ये सब स्वर्ग से च्युत होकर निवृत्ति (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं ॥१॥ गाथा में कहे हुए पदों को तथा आगम में निषिद्ध अन्य उत्तम पदों को छोड़कर भवनाशक निज-आत्मा की भावना से रहित व संसार को उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व राग आदि भावों से सहित हुआ, यह जीव अनन्त बार जन्मा है और मरा है । इस प्रकार भवसंसार जानना चाहिए ।
- अब भावसंसार का कथन किया जाता है- सबसे जघन्य प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत सर्व जघन्य मन, वचन, काय के अवलम्बन से परिस्पन्द रूप श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा चार स्थानों में पतित (वृद्धि हानि), ऐसे सर्व जघन्य योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व उत्कृष्ट प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत, सर्वोत्कृष्ट मन, वचन, काय के व्यापार रूप, यथायोग्य श्रेणी के असंख्यातवें-भाग प्रमाण, चार स्थानों में पतित सर्वोत्कृष्ट योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व जघन्य स्थितिबन्ध के कारणभूत, अपने योग्य असंख्यात लोक प्रमाण, षट्स्थान वृद्धि-हानि में पतित सर्वजघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं । इसी तरह सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारणभूत सर्वोत्कृष्ट कषाय अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट् स्थानों में पतित होते हैं । इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभागबन्ध के कारणभूत सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण तथा षट्स्थान पतित हानिवृद्धि रूप होते हैं । इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग-बन्ध के कारण जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट्स्थान पतित जानने चाहिए । इसी प्रकार से अपने-अपने जघन्य और उत्कृष्ट के बीच में तारतम्य से मध्यम भेद भी होते हैं । इसी तरह जघन्य से उत्कृष्ट तक ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबन्ध स्थान हैं । उन सब में, परमागम अनुसार, इस जीव ने अनन्त बार भ्रमण किया, परन्तु पूर्वोक्त समस्त प्रकृति बन्ध आदि की सत्ता के नाश के कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण रूप जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हैं, उनको इस जीव ने प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार भावसंसार है ।
इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पाँच प्रकार के संसार का चिन्तन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्ध आत्मज्ञान का नाश करने वाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, उनमें परिणाम नहीं जाता किन्तु वह संसारातीत (संसार में प्राप्त न होने वाला अतीन्द्रिय) सुख के अनुभव में लीन होकर, निजशुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज-निरंजन-परमात्मा में भावना करता है । तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है, उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनन्तकाल तक रहता है । यहाँ विशेष यह है - नित्य निगोद के जीवों को छोड़कर, पंच प्रकार के संसार का व्याख्यान जानना चाहिए (नित्य-निगोदी जीव इस पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण नहीं करते); क्योंकि नित्य निगोदवर्ती जीवों को तीन काल में भी त्रसपर्याय नहीं मिलती । सो कहा भी है- ऐसे अनन्त जीव हैं कि जिन्होंने त्रसपर्याय को अभी तक प्राप्त ही नहीं किया वे भावकलंकों (अशुभ परिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोद के निवास को कभी नहीं छोड़ते । किन्तु यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि नौ सौ तेईस जीव, कर्मों की निर्जरा (मन्द) होने से, इंद्रगोप (मखमली लाल कीड़े) हुए उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया इससे वे मरकर, भरत के वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए । वे पुत्र किसी के भी साथ नहीं बोलते थे । इसलिए भरत ने समवसरण में भगवान् से पूछा, तो भगवान् ने उन पुत्रों का पुराना सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर उन सब वर्द्धनकुमारादि ने तप ग्रहण किया और बहुत थोड़े काल में मोक्ष चले गये । यह कथा आचाराराधना की टिप्पणी में कही गई है । इस प्रकार संसार अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥३॥ - अब एकत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं- निश्चयरत्नत्रय लक्षण वाली एकत्व भावना में परिणत इस जीव के निश्चयनय से स्वाभाविक आनन्द आदि अनन्त गुणों का आधाररूप केवलज्ञान ही एक स्वाभाविक शरीर है । यहाँ 'शरीर' शब्द का अर्थ 'स्व-रूप' है, न कि सात धातुओं से निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आर्त और रौद्र दुर्ध्यानों से विलक्षण परमसामायिक रूप एकत्वभावना में परिणत जो एक अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी और परम हितकारी व परम बन्धु है; विनश्वर व अहितकारी पुत्र, मित्र, कलत्र आदि बन्धु नहीं हैं । उसी प्रकार परम उपेक्षा संयमरूप एकत्व भावना से सहित जो निज शुद्धात्म पदार्थ है, वही एक अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ है, सुवर्ण आदि परम-अर्थ नहीं हैं । एवं निर्विकल्प-ध्यान से उत्पन्न निर्विकार परम-आनन्द-लक्षण, आकुलतारहित आत्म-सुख ही एक सुख है और आकुलता उत्पन्न करने वाला इन्द्रियजन्य जो सुख है वह सुख नहीं है ।
शंका – शरीर, बन्धुजन तथा सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि को निश्चयनय से जीव के लिए हेय क्यों कहे हैं?
समाधान – मरण समय यह जीव अकेला ही दूसरी गति में गमन करता है, देह आदि इस जीव के साथ नहीं जाते । तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है तब विषय कषाय आदि रूप दुर्ध्यान से रहित एक-निजशुद्ध-आत्मा ही इसका सहायक होता है ।
शंका – वह कैसे सहायक होता है?
समाधान – यदि जीव का वह अन्तिम शरीर हो, तब तो केवलज्ञान आदि की प्रकटतारूप मोक्ष में ले जाता है और यदि अन्तिम शरीर न हो, तो वह संसार की स्थिति को कम करके देवेन्द्रादि सांसारिक सुख को देकर तत्पश्चात् परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराता है । यह निष्कर्ष है । कहा भी है
तप करने से स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु ध्यान के योग से जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भव में अक्षय-सुख को प्राप्त करता है ॥१॥
इस तरह एकत्व भावना के फल को जान कर, सदा निज-शुद्ध आत्मा में एकत्व रूप भावना करनी चाहिए । इस प्रकार एकत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥४॥ - अब अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - पूर्वोक्त देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रियसुख आदि कर्मों के अधीन हैं, इसी कारण विनाशशील तथा हेय भी हैं । इस कारण टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप एकस्वभाव से नित्य, सब प्रकार उपादेयभूत निर्विकार-परम चैतन्य चित्-चमत्कार स्वभाव रूप जो निज-परमात्म पदार्थ हैं, निश्चयनय की अपेक्षा उससे वे सब देह आदि भिन्न हैं । आत्मा भी उनसे भिन्न है । भावार्थ है कि एकत्व अनुप्रेक्षा में तो "मैं एक हूँ" इत्यादि प्रकार से विधि रूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में "देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं" इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है । इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधिनिषेध रूप का ही अन्तर है, तात्पर्य दोनों का एक ही है । ऐसे अन्यत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥५॥
- इसके आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - सब प्रकार से अपवित्र वीर्य और रज से उत्पन्न होने के कारण, वसा, रुधिर, माँस, मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा और शुक्र धातु हैं, इन अपवित्र सात धातुमय होने से, नाक आदि नौ छिद्रद्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र, विष्ठा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर अपने संसर्ग से पवित्र-सुगन्ध-माला व वस्त्र आदि में भी अपवित्रता उत्पन्न कर देता है, इसलिए भी यह देह अशुचि है । अब पवित्रता को बतलाते हैं- सहज-शुद्ध केवलज्ञान आदि गुण का आधार होने से और निश्चय से पवित्र होने से यह परमात्मा ही शुचि है । जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है, उसको परदेह की सेवा रहित ब्रह्मचर्य जानो । इस गाथा में कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, वह निज परमात्मा में स्थित जीवों को ही मिलता है तथा ब्रह्मचारी सदा पवित्र है इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों के ही पवित्रता है । जो काम, क्रोध आदि में लीन जीव हैं, उनके जल-स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है क्योंकि जन्म से शूद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्र) से श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिए ।१। इस आगम वचनानुसार वे (परमात्मा में लीन) ही वास्तविक शुद्ध ब्राह्मण हैं । नारायण ने युधिष्ठिर से कहा भी है - विशुद्ध आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान करना शुचि का कारण नहीं है । संयमरूपी जल से भरी, सत्यरूपी प्रवाहशीलरूप तट और दयामय तरंगों की धारक जो आत्मा रूपी नदी है, उसमें हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! स्नान करो क्योंकि अन्तरात्मा जल से शुद्ध नहीं होता है ॥१॥ इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का वर्णन हुआ ॥६॥
- अब आगे आस्रवानुप्रेक्षा कहते हैं । जैसे छेद वाली नाव समुद्र में डूबती है, उसी तरह इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा यह जीव संसार-समुद्र में गिरता है, यह वार्त्तिक है । अतीन्द्रिय निजशुद्धात्मज्ञान से विलक्षण स्पर्शन, रसना, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । परम उपशम रूप परमात्म स्वभाव को क्षोभित करने वाले क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं । राग आदि विकल्पों से रहित ऐसे शुद्ध-आत्मानुभव से प्रतिकूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों में प्रवृत्तिरूप पाँच अव्रत हैं । क्रिया रहित और निर्विकार आत्मतत्त्व से विपरीत मन-वचन-काय के व्यापार रूप, शास्त्र में कही हुई सम्यक् क्रिया, मिथ्यात्व आदि पच्चीस क्रियायें हैं । इस प्रकार इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया रूप आस्रवों का स्वरूप जानना चाहिए । जैसे समुद्र में अनेक रत्नों से भरा हुआ छिद्र सहित जहाज उसमें जल के प्रवेश से डूब जाता है, समुद्र के किनारे पत्तन (नगर) को नहीं पहुँच पाता । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप अमूल्य रत्नों से पूर्ण जीवरूपी जहाज, इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा कर्मरूपी जल का प्रवेश हो जाने पर, संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है । केवलज्ञान, अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुणमय रत्नों से पूर्ण व मुक्ति स्वरूप वेलापत्तन (संसार-समुद्र के किनारे का नगर) को यह जीव नहीं पहुँच पाता इत्यादि प्रकार से आस्रवगत दोषों का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है ॥७॥
- अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं । वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जीवरूपी जहाज अपने शुद्ध आत्मज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवरूप छिद्रों के बन्द हो जाने पर कर्मरूप जल न घुस सकने से, केवलज्ञान आदि अनन्तगुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूप वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है । ऐसे संवर के गुणों के चिंतनरूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए ॥८॥
- अब निर्जरानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं जैसे किसी मनुष्य के अजीर्ण होने से पेट में मल का जमाव हो जाने पर, वह मनुष्य आहार को छोड़कर मल को पचाने वाले तथा जठराग्नि को तीव्र करने वाले हरड़ आदि औषध को ग्रहण करता है । जब उस औषध से मल पक जाता है, गल जाता है अथवा पेट से बाहर निकल जाता है तब वह मनुष्य सुखी होता है । उसी प्रकार यह भव्य जीव भी अजीर्ण उत्पन्न करने वाले आहार के स्थानभूत मिथ्यात्व-रागादि अज्ञान भावों से कर्मरूपी मल का संचय होने पर मिथ्यात्व-राग आदि छोड़कर, जीवन-मरण में व लाभ-अलाभ में और सुख-दुःख आदि में समभाव को उत्पन्न करने वाला, कर्ममल को पकाने वाला तथा शुद्ध-ध्यानअग्नि को प्रज्ज्वलित करने वाला, जो परम औषध के स्थानभूत जिनवचनरूप औषध है, उसका सेवन करता है, उससे कर्मरूपी मलों के गलन तथा निर्जरण हो जाने पर सुखी होता है । विशेष - जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्ण के समय जो कष्ट हुआ उसको अजीर्ण चले जाने पर भी नहीं भूलता और अजीर्ण पैदा करने वाले आहार को छोड़ देता है, जिससे सदा सुखी रहता है; उसी तरह ज्ञानी मनुष्य भी, 'दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं' इस वाक्यानुसार, दु:ख के समय जो धर्मरूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जाने पर भी नहीं भूलता । तत्पश्चात् निज परमात्म अनुभव के बल से निर्जरा के लिए देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोग-वांछादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है । संवेग और वैराग्य का लक्षण कहते हैं-
धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ॥१॥
ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥९॥ - अब लोकानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं- वह इस प्रकार है; अनन्तानन्त आकाश के बिल्कुल मध्य के प्रदेशों में, घनोदधि, घनवात, तनुवात नामक तीन पवनों से बेढ़ा हुआ, अनादि अनन्त अकृत्रिम निश्चल असंख्यात प्रदेशी लोक है । उसका आकार बतलाते हैं- नीचे मुख किये हुए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है; परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह अन्तर है । अथवा पैर फैलाये, कमर पर हाथ रखे, खड़े हुए मनुष्य का जैसा आकार होता है, वैसा लोक का आकार है । अब उस लोक की ऊँचाई-लम्बाई-विस्तार का निरूपण करते हैं- चौदह राजू प्रमाण ऊँचा तथा दक्षिण उत्तर में सब जगह सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम में नीचे के भाग में सात राजू विस्तार है, फिर उस अधोभाग से, क्रम से इतना घटता है कि मध्यलोक (बीच) में एक राजू रह जाता है फिर मध्यलोक से ऊपर क्रम से बढ़ता है सो ब्रह्मलोक नामक पंचम स्वर्ग के अन्त में पाँच राजू का विस्तार है, उसके ऊपर फिर घटता हुआ लोक के अन्त में जाकर एक राजू प्रमाण विस्तार वाला रह जाता है । इसी लोक के मध्य में, ऊखल के मध्य भाग से नीचे की ओर छिद्र करके एक बाँस की नली रखी जावे, उसका जैसा आकार होता है उसके समान, एक चौकोर त्रसनाड़ी है, वह एक राजू लम्बी-चौड़ी और चौदह राजू ऊँची जाननी चाहिए । उस त्रसनाड़ी के नीचे के भाग के जो सात राजू हैं वे अधोलोक सम्बन्धी हैं । ऊर्ध्व भाग में, मध्य लोक की ऊँचाई सम्बन्धी लक्ष-योजन-प्रमाण सुमेरु की ऊँचाई सहित सात राजू ऊर्ध्व लोक सम्बन्धी हैं ।
इसके आगे अधोलोक का कथन करते हैं- अधोभाग में सुमेरु की आधारभूत रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी है । उस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे-नीचे एक-एक राजू प्रमाण आकाश जाकर क्रमशः शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नामक ६ भूमियाँ हैं । उनके नीचे भूमिरहित एक राजूप्रमाण जो क्षेत्र है वह निगोद आदि पंच स्थावरों से भरा हुआ है । घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक जो तीन वातवलय हैं वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी के आधारभूत हैं (रत्नप्रभा आदि पृथ्वी इन तीनों वातवलयों के आधार से हैं) यह जानना चाहिए । किस पृथ्वी में कितने (कुएँ सरीखे) नरक-बिल हैं, उनको यथाक्रम से कहते हैं- पहली भूमि में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख तथा सातवीं पृथ्वी में पाँच, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) नरक-बिल हैं । अब रत्नप्रभा आदि भूमियों का पिण्ड प्रमाण क्रम से कहते हैं । यहाँ पिण्ड शब्द का अर्थ गहराई या मोटाई है । प्रथम पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार, दूसरी का बत्तीस हजार, तीसरी का अट्ठाईस हजार, चौथी का चौबीस हजार, पाँचवीं का बीस हजार, छठी का सोलह हजार और सातवीं का आठ हजार योजन पिण्ड जानना चाहिए । उन पृथिवियों का तिर्यग् विस्तार चारों दिशाओं में यद्यपि त्रस नाड़ी की अपेक्षा से एक राजू प्रमाण है तथापि त्रसों से रहित जो त्रस नाड़ी के बाहर का भाग है वह लोक के अन्त तक है । सो ही कहा है- अन्त को स्पर्श करती हुई भूमियों का प्रमाण सब दिशाओं में लोकान्त प्रमाण है । अब यहाँ विस्तार की अपेक्षा तिर्यक् लोकपर्यन्त विस्तार वाली, गहराई (मोटाई) की अपेक्षा मेरु की अवगाह समान एक हजार योजन मोटी चित्रा पृथ्वी मध्य लोक में है । उस पृथ्वी के नीचे सोलह हजार योजन मोटा खर भाग है । उस खर भाग के भी नीचे चौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है । उससे भी नीचे के भाग में अस्सी हजार योजन मोटा अब्बहुल भाग है । इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग भेदों से तीन प्रकार की जाननी चाहिए । उनमें ही खर भाग में असुरकुमार देवों के सिवाय नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षसों के सिवाय सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवास स्थान हैं । पंक भाग में असुर तथा राक्षसों का निवास है । अब्बहुल भाग में नरक हैं ।
बहुत से खनों (मंजिलों) वाले महल के समान नीचे-नीचे सब पृथिवियों में अपनी-अपनी मोटाई में, नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़ कर, जो बीच का भाग है, उसमें पटल होते हैं । भूमि के क्रम से वे पटल पहली पृथ्वी में तेरह, दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात, पाँचवीं में पाँच, छठी में तीन और सातवीं में एक, ऐसे सब ४९ पटल हैं । 'पटल' का क्या अर्थ है? पटल का अर्थ प्रस्तार, इन्द्रक अथवा अन्तर भूमि है । रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी के सीमन्त नामक पहले पटल में ढाईद्वीप के समान संख्यात (पैंतालीस लाख) योजन विस्तार वाला जो मध्य-बिल है, उसकी इन्द्रक संज्ञा है । उस इन्द्रक की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में असंख्यात योजन विस्तार वाले ४९ बिल हैं और इसी प्रकार चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पंक्ति रूप जो ४८-४८ बिल हैं, वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं । (इन्द्रक-बिल की दिशा और विदिशाओं में जो पंक्ति रूप बिल हैं) उनकी श्रेणीबद्ध' संज्ञा है । चारों दिशाओं और विदिशाओं के बीच में, पंक्ति के बिना, बिखरे हुए पुष्पों के समान, संख्यात योजन तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले जो बिल हैं, उनकी 'प्रकीर्णक' संज्ञा है । ऐसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक रूप से तीन प्रकार के नरक हैं । इस प्रकार प्रथम पटल का व्याख्यान जानना चाहिए । इसी प्रकार पूर्वोक्त जो सातों पृथिवियों में उनचास पटल हैं उनमें भी बिलों का ऐसा ही क्रम है; किन्तु प्रत्येक पटल में, आठों दिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों में से एक-एक बिल घटता गया है, अतः सातवीं पृथ्वी में चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है ।
रत्नप्रभादि पृथिवियों के नारकियों के शरीर की ऊँचाई कहते हैं- प्रथम पटल में तीन हाथ की ऊँचाई है और यहाँ से क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तेरहवें पटल में सात धनुष, तीन हाथ और ६ अंगुल की ऊँचाई है । तदनन्तर दूसरी आदि पृथिवियों के अन्त के इन्द्रक बिलों में दूनी-दूनी वृद्धि करने से सातवीं पृथ्वी में पाँच सौ धनुष की ऊँचाई होती है । ऊपर के नरक में जो उत्कृष्ट ऊँचाई है उससे कुछ अधिक नीचे के नरक में जघन्य ऊँचाई है । इसी प्रकार पटलों में भी जानना चाहिए । नारकी जीवों की आयु का प्रमाण कहते हैं । प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल में जघन्य दस हजार वर्ष की आयु है; तत्पश्चात् आगम में कहे हुए क्रमानुसार वृद्धि से अन्त के तेरहवें पटल में एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर क्रम से दूसरी पृथ्वी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दस सागर, पाँचवीं में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तैंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । जो पहली पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु है, उससे एक समय अधिक दूसरी में जघन्य आयु है । इसी तरह जो पहले पटल में उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे ही सातवीं पृथ्वी तक जानना चाहिए । निजशुद्ध-आत्मानुभव रूप निश्चय रत्नत्रय से विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सरट (गोह आदि) पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री की क्रम से रत्नप्रभादि छह पृथिवियों तक जाने की शक्ति है (असैनी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि तक, सरट (गोह) पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक तथा स्त्री का जीव छठी भूमि तक जा सकता है) और सातवीं पृथ्वी में कर्मभूमि के उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं ।
विशेष- यदि कोई जीव निरन्तर नरक में जाता है तो प्रथम पृथ्वी में आठ बार, दूसरी में सात बार, तीसरी में छह बार, चौथी में पाँच बार, पाँचवीं में चार बार, छठी में तीन बार और सातवीं में दो बार ही जा सकता है किन्तु सातवें नरक से आये हुए जीव फिर एक बार उसी या अन्य किसी नरक में जाते हैं, ऐसा नियम है । नरक से आये हुए जीव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नामक शलाकापुरुष नहीं होते । चौथे नरक से आये हुए जीव तीर्थंकर, पाँचवें से आये हुए जीव चरम शरीरी, छठे से आये हुए जीव भावलिंगी मुनि और सातवें से आये हुए जीव श्रावक नहीं होते । तो क्या होते हैं? नरक से आये हुए जीव, कर्मभूमि में संज्ञी, पर्याप्त तथा गर्भज मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं । सातवें नरक से आये हुए तिर्यञ्च ही होते हैं ॥१॥
अब नारकियों के दुःखों का कथन करते हैं । यथा विशुद्धज्ञान, दर्शनस्वभाव निज शुद्ध परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण की भावना से समुत्पन्न निर्विकार परम-आनन्दमय सुखरूपी अमृत के आस्वाद से रहित और पाँच इन्द्रियों के विषय सुखास्वाद में लम्पट, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों ने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि पापकर्म उपार्जन किया है, उसके उदय से वे नरक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ पहले की चार पृथिवियों में तीव्र गर्मी का दुःख और पाँचवीं पृथ्वी के ऊपरी तीन चौथाई भाग में तीव्र उष्णता का दुःख और नीचे के एक चौथाई भाग में तीव्र शीत का दुःख तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में अत्यन्त शीत के दुःख का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार छेदने, भेदने, करोती से चीरने, घानी में पेलने और शूली पर चढ़ाने आदि रूप तीव्र दुःख सहन करते हैं । सो ही कहा है कि
नरक में रात-दिन दुःख-रूप अग्नि में पकते हुए नारकी जीवों को नेत्रों के टिमकार मात्र भी सुख नहीं है किन्तु सदा दुःख ही लगा रहता है ॥१॥
पहली तीन पृथिवियों तक असुरकुमार देवों द्वारा उत्पन्न किये हुए दुःख भी सहते हैं । ऐसा जानकर, नरक-सम्बन्धी दु:ख के नाश के लिए भेद तथा अभेद रूप रत्नत्रय की भावना करनी चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से अधोलोक का व्याख्यान जानना चाहिए ।
इसके अनन्तर तिर्यग् लोक का वर्णन करते हैं । अपने दूने-दूने विस्तार से पूर्व-पूर्व द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप इस क्रम से बेढ़ करके, गोल आकार वाले जम्बूद्वीप आदि शुभ नामों वाले द्वीप और लवणोदधि आदि शुभ नामों वाले समुद्र; स्वयम्भूरमण समुद्र तक तिर्यग् विस्तार से फैले हुए हैं । इस कारण इसको तिर्यग् लोक या मध्य लोक भी कहते हैं । वह इस प्रकार है- साढ़े तीन उद्धार सागर प्रमाण लोमों (बालों) के टुकड़ों के बराबर जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनके बीच में जम्बूद्वीप है ।
वह जम्बू (जामुन) के वृक्ष से चिह्नित तथा मध्य भाग में स्थित सुमेरु पर्वत सहित है; गोलाकार एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले दो लाख योजन प्रमाण गोलाकार लवण समुद्र से वेष्टित (बेढ़ा हुआ) है । वह लवण समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार धातकीखण्ड द्वीप से वेष्टित है । वह धातकीखण्ड द्वीप भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले आठ लाख योजन प्रमाण गोलाकार कालोदधि समुद्र से वेष्टित है । वह कालोदक समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले सोलह लाख योजन प्रमाण गोलाकार पुष्कर द्वीप से वेष्टित है । इस प्रकार यह दूना-दूना विस्तार स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभूरमण समुद्र तक जानना चाहिए । जैसे जम्बूद्वीप एक लाख योजन और लवणसमुद्र दो लाख योजन चौड़ा है, इन दोनों का समुदाय तीन लाख योजन है; उससे एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन धातकीखण्ड है । इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों के विष्कम्भ का जो योग है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्र का विष्कम्भ जानना चाहिए । ऐसे पूर्वोक्त लक्षण के धारक असंख्यात द्वीप समुद्रों में पर्वत आदि के ऊपर व्यन्तर देवों के आवास; नीचे की पृथ्वी के भाग में भवन और द्वीप तथा समुद्र आदि में पुर हैं । इन आवास; भवन तथा पुरों के परमागमानुसार भिन्न-भिन्न लक्षण हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमि के खरभाग और पंकभाग में स्थित प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्य व्यन्तरदेवों के आवास हैं तथा सात करोड़ बहत्तर लाख भवनवासी देवों के भवन अकृत्रिम जिन चैत्यालयों सहित हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप से मध्यलोक का व्याख्यान किया ।
अब तिर्यग्लोक के बीच में स्थित मनुष्य लोक का व्याख्यान करते हैं । उस मनुष्यलोक बीच में स्थित जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं । दक्षिण दिशा से आरम्भ होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र हैं । क्षेत्र का क्या अर्थ है? यहाँ क्षेत्र शब्द से वर्ष; वंश; देश अथवा जनपद अर्थ का ग्रहण है । उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले छह कुलाचल हैं । दक्षिण दिशा की ओर से उनके नाम १. हिमवत्, २. महाहिमवत्, ३. निषध, ४. नील, ५. रुक्मी और ६. शिखरी हैं । पूर्व-पश्चिम लम्बे ये पर्वत उन भरत आदि सप्त क्षेत्रों के बीच में हैं । पर्वत का क्या अर्थ है? पर्वत का अर्थ वर्षधर पर्वत अथवा सीमा पर्वत है । उन पर्वतों के ऊपर हृदों का क्रम से कथन करते हैं । १. पद्म, २. महापद्म, ३. तिगिंछ, ४. केसरी, ५. महापुंडरीक, ६. पुंडरीक ये अकृत्रिम छह हृद हैं । हृद का क्या अर्थ है? हृद का अर्थ सरोवर है । उन पद्म आदि ६ हृदों से आगम में कहे क्रमानुसार जो चौदह महानदियाँ निकली हैं, उनका वर्णन करते हैं ।
तथा हिमवत् पर्वत पर स्थित पद्म नामक महाहृद के पूर्व तोरण द्वार से, अर्ध कोस प्रमाण गहरी और एक कोस अधिक छह योजन प्रमाण चौड़ी गंगा नदी निकलकर, उसी हिमवत् पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा में पाँच सौ योजन तक जाती है; फिर वहाँ से गंगाकूट के पास दक्षिण दिशा को मुड़कर, भूमि में स्थित कुण्ड में गिरती है, वहाँ से दक्षिण द्वार से निकलकर, भरत क्षेत्र के मध्य भाग में स्थित तथा अपनी लम्बाई से पूर्व पश्चिम समुद्र को छूने वाले विजयार्द्ध पर्वत की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्द्ध भाग में पूर्व को घूमकर पहली गहराई की अपेक्षा दसगुणी अर्थात् ५ कोस गहरी और इसी प्रकार पहली चौड़ाई से दस गुणी अर्थात् साढ़े बासठ योजन चौड़ी गंगा नदी पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है । इस गंगा की भाँति सिन्धु नामक महानदी भी उसी हिमवत् पर्वत पर विद्यमान पद्म हृद के पश्चिम द्वार से निकलकर पर्वत पर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशा को आकर विजयार्द्ध की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्धभाग में पश्चिम को मुड़कर पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस प्रकार दक्षिण दिशा को आई हुई गंगा और सिन्धु दो नदियों से और पूर्व-पश्चिम लम्बे विजयार्द्ध पर्वत से भरत क्षेत्र छह खण्ड वाला किया गया है अर्थात् भरत के छह खण्ड हो जाते हैं ।
महाहिमवत् पर्वत पर स्थित महापद्म नामक हृद के दक्षिण दिशा की ओर से हैमवत् क्षेत्र के मध्य में आकर, वहाँ पर स्थित नाभिगिरि पर्वत को आधा योजन से न छूती हुई (पर्वत से आधा योजन दूर रहकर), उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहित् नामा नदी पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार रोहितास्या नदी हिमवत् पर्वत के पद्म हृद से उत्तर को आकर, उसी नाभिगिरि से आधा योजन दूर रहती हुई; उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्र में गई है । इस प्रकार रोहित और रोहितास्या नामक दो नदियाँ हैमवत् नामक जघन्य भोगभूमि के क्षेत्र में जाननी चाहिए । हरित नदी निषध पर्वत के तिगिंछ हृद से दक्षिण को आकर नाभिगिरि पर्वत से आधे योजन दूर रहकर उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पूर्व समुद्र में गई है । इसी तरह हरिकान्ता नदी महाहिमवत् पर्वत के महापद्म हृद से उत्तर दिशा की ओर आकर, उसी नाभिगिरि को आधे योजन तक न स्पर्शती हुई अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्र में गई है । ऐसे हरित और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामक मध्य-भोगभूमि क्षेत्र में हैं । सीता नदी नील पर्वत के केसरी हृद से दक्षिण को आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमि क्षेत्र के बीच में होकर, मेरु के पास आकर, गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन तक दूर रहकर, पूर्व भद्रशालवन और पूर्व विदेह के मध्य में होकर, पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार सीतोदा नदी निषधपर्वत के तिगिंछह्रद से उत्तर को आकर, देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि क्षेत्र के बीच में से जाकर मेरु के पास गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन दूर रहकर, पश्चिम भद्रशालवन के और पश्चिम विदेह के मध्य में गमन करके, पश्चिम समुद्र को गई है । ऐसे सीता और सीतोदा नामक नदियों का युगल विदेह नामक कर्मभूमि के क्षेत्र में जानना चाहिए । जो विस्तार और अवगाह का प्रमाण पहले गंगा-सिंधु नदियों का कहा है, उससे दूनादूना विस्तार आदि, प्रत्येक क्षेत्र में, नदियों के युगलों का विदेह तक जानना चाहिए । गंगा चौदह हजार परिवार की नदियों सहित है । इसी प्रकार सिन्धु भी चौदह हजार नदियों की धारक है । इनसे दूनी परिवार नदियों की धारक रोहित व रोहितास्या है । हरित-हरिकान्ता का इससे भी दूना परिवार है । सीता-सीतोदा दोनों नदियों का इनसे भी दूना परिवार है । दक्षिण से उत्तर को पाँच सौ छब्बीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से ६ भाग प्रमाण कर्मभूमि संज्ञक भरत क्षेत्र का विष्कम्भ है । उससे दूना हिमवत् पर्वत का, हिमवत् पर्वत से दूना हैमवत क्षेत्र का, ऐसे दूना-दूना विष्कम्भ विदेह क्षेत्र तक जानना चाहिए । पद्म हृद एक हजार योजन लम्बा, उससे आधा (पाँच सौ योजन) चौड़ा और दस योजन गहरा है, उसमें एक योजन का कमल है, उससे दूना महापद्म हृद में और उससे दूना तिगिंछ हृद में जानना ।
जैसे भरतक्षेत्र में हिमवत् पर्वत से गंगा तथा सिन्धु ये दो नदियाँ निकलती हैं वैसे ही उत्तर दिशा में कर्मभूमिसंज्ञक ऐरावत क्षेत्र में शिखरी पर्वत से निकली हुई रक्ता तथा रक्तोदा नामक दो नदियाँ हैं । जैसे हैमवत नामक जघन्य भोगभूमि क्षेत्र में महाहिमवत् और हिमवत् नामक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई रोहित तथा रोहितास्या, ये दो नदियाँ हैं, इसी प्रकार उत्तर में हैरण्यवत नामक जघन्य भोगभूमि में, शिखरी और रुक्मी नामक पर्वतों से क्रमशः निकली हुई सुवर्णकूला तथा रूप्यकूला, ये दो नदियाँ हैं । जिस तरह हरि नामक मध्यम भोगभूमि में, निषध और महाहिमवन् पर्वतों से क्रमशः निकली हुई हरित-हरिकान्ता, ये दो नदियाँ हैं, उसी तरह उत्तर में रम्यक नामक मध्यम भोगभूमि-क्षेत्र में रुक्मी और नील संज्ञक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई नारी-नरकान्ता दो नदियाँ जाननी चाहिए । सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों सम्बन्धी आयु तथा शरीर की ऊँचाई आदि परमागम में कही गई है, उन सहित दस कोटा-कोटि सागर प्रमाण, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल भरत जैसे ही ऐरावत में भी होते हैं । इतना विशेष है कि भरत ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों में और विजयार्ध पर्वतों में चतुर्थ काल के आदि तथा अन्त के समान काल वर्तता है, अन्य काल नहीं वर्तता । विशेष क्या कहें, जैसे खाट का एक भाग जान लेने पर उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; उसी तरह जम्बूद्वीप के क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदि का जो दक्षिण दिशा सम्बन्धी व्याख्यान है वही उत्तर दिशा सम्बन्धी भी जानना ।
अब शरीर में ममत्व के कारणभूत मिथ्यात्व तथा राग आदि विभावों से रहित और केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों से सहित निज परमात्म द्रव्य में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके, मुनिजन जहाँ से विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकता से मोक्ष प्राप्त करते हैं उसको विदेह कहते हैं । जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र का कुछ वर्णन करते हैं । निन्यानवे हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और आदि में भूमितल पर दस हजार योजन गोल विस्तार वाला तथा ऊपर-ऊपर ग्यारहवें भाग हानि क्रम से घटते-घटते शिखर पर एक हजार योजन विस्तार का धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देववन तथा देवों के आवास आदि नाना प्रकार के आश्चर्यों सहित ऐसा महामेरु नामक पर्वत विदेहक्षेत्र के मध्य में है, वही मानों गज (हाथी) हुआ, उस मेरुरूप गज से उत्तर दिशा में दो दन्तों के आकार से जो दो पर्वत निकले हैं, उनका नाम 'दो-गजदन्त' है और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं । उन दोनों गजदन्तों के मध्य में जो त्रिकोण आकार वाला उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका नाम 'उत्तरकुरु' है । उसके मध्य में मेरु की ईशान दिशा में सीता नदी और नील पर्वत के बीच में परमागम-कथित अनादि-अकृत्रिम तथा पृथ्वीकायिक जम्बूवृक्ष है । उसी सीता नदी के दोनों किनारों पर यमकगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहिए । उन दोनों यमकगिरि पर्वतों से दक्षिण दिशा में कुछ मार्ग चलने पर सीता नदी के बीच में कुछ-कुछ अन्तराल से पद्म आदि पाँच हृद हैं । उन हृदों के दोनों पसवाड़ों में से प्रत्येक पार्श्व में, लोकानुयोग के व्याख्यान के अनुसार, सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित जिनचैत्यालयों से भूषित दस-दस सुवर्ण पर्वत हैं । इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रय की आराधना करने वाले उत्तम पात्रों को परम भक्ति से दिये हुए आहार-दान के फल से उत्पन्न हुए तिर्यञ्च और मनुष्यों को, निज शुद्ध आत्मभावना से उत्पन्न होने वाला निर्विकार सदा आनन्दरूप सुखामृत रस के आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्ती के भोग-सुखों से भी अधिक, नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय सम्बन्धी भोग-सुखों के देने वाले ज्योतिरांग, गृहांग, दीपांग, तूर्यांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भाजनांग, भूषणांग तथा राग एवं मद को उत्पन्न करने वाले रसांग नामक, ऐसे दस प्रकार के कल्पवृक्ष भोगभूमियाँ क्षेत्र में स्थित हैं, इत्यादि परमागम कथित प्रकार से अनेक आश्चर्य समझने चाहिए । उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो दो-गजदन्त हैं उनके मध्य में उत्तरकुरु के समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि का क्षेत्र जानना चाहिए ।
उसी मेरु पर्वत से पूर्व दिशा में, पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन विस्तार वाला वेदी सहित भद्रशाल वन है । उससे पूर्व दिशा में कर्मभूमि नामक पूर्वविदेह है । वहाँ नील नामक कुलाचल से दक्षिण दिशा में और सीता नदी के उत्तर में मेरु की प्रदक्षिणा रूप से जो क्षेत्र है, उनके विभाग कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- मेरु से पूर्व दिशा में जो पूर्व भद्रशाल वन की वेदिका है, उससे पूर्व दिशा में प्रथम क्षेत्र है, उसके पश्चात् दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, उसके बाद क्षेत्र है, उसके आगे विभंगा नदी है, उसके आगे क्षेत्र है, उसके अनन्तर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है और फिर क्षेत्र है, उससे आगे फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, तदनन्तर पूर्व समुद्र के पास जो देवारण्य नामक वन है, उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों (दीवारों) से आठ क्षेत्र जानने चाहिए । क्रम से उनके नाम हैं- १. कच्छा, २. सुकच्छा, ३. महाकच्छा, ४. कच्छावती, ५. आवर्ता, ६. लांगलावर्ता, ७. पुष्कला और ८. पुष्कलावती । अब क्षेत्रों के मध्य में जो नगरियाँ हैं, उनके नाम कहते हैं- १. क्षेमा, २. क्षेमपुरी, ३. रिष्टा, ४. रिष्टपुरी, ५. खड्गा, ६. मंजूषा, ७. औषधी और ८. पुण्डरीकिणी ।
इसके ऊपर सीता नदी के दक्षिण भाग में निषध पर्वत से उत्तर भाग में जो आठ क्षेत्र हैं उनका कथन करते हैं । वे इस प्रकार हैं- पहले कही हुई जो देवारण्य की वेदी है उसके पश्चिम में क्षेत्र है, तदनन्तर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, तत्पश्चात् विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, पश्चात् विभंगा नदी है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे मेरु की पूर्व दिशा वाले पूर्व भद्रशाल वन की वेदी है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र जानने योग्य हैं । उन क्षेत्रों के नाम क्रम से कहते हैं- १. वच्छा, २. सुवच्छा, ३. महावच्छा, ४. वच्छावती, ५. रम्या, ६. रम्यका, ७. रमणीया और ८. मंगलावती । अब उन क्षेत्रों में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. सुसीमा, २. कुण्डला, ३. अपराजिता, ४. प्रभाकरी, ५. अंका, ६. पद्मा, ७. शुभा और रत्नसंचया । इस प्रकार पूर्व विदेहक्षेत्र के विभागों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
अब मेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन लम्बे पश्चिम भद्रशाल वन के बाद पश्चिम विदेहक्षेत्र है । वहाँ निषध पर्वत के उत्तर में और सीतोदा नदी के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभाग कहते हैं- मेरु की पश्चिम दिशा में जो पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है, उसके पश्चिम भाग में क्षेत्र है, उससे आगे दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, उससे आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके अनन्तर पश्चिम समुद्र के समीप जो भूतारण्य नामक वन है उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र होते हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. पद्मा, २. सुपद्मा, ३. महापद्मा, ४. पद्मकावती, ५. शंखा, ६. नलिना, ७. कुमुदा और ८. सलिला । उन क्षेत्रों के मध्य में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. अश्वपुरी, २. सिंहपुरी, ३. महापुरी, ४. विजयापुरी, ५. अरजापुरी, ६. विरजापुरी, ७. अशोकापुरी और ८. विशोकापुरी ।
अब सीतोदा के उत्तर में और नील कुलाचल के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभागभेद का वर्णन करते हैं- पहले कही हुई जो भूतारण्य वन की वेदिका है उसके पूर्व में क्षेत्र है, उसके बाद वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके बाद विभंगा नदी, उसके पीछे क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके बाद पुनः विभंगा नदी, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र, तदनन्तर विभंगा नदी, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र है । उसके अनन्तर मेरु की (पश्चिम) दिशा में स्थित पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के बीच में आठ क्षेत्र हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. वप्रा, २. सुवप्रा, ३. महावप्रा, ४. वप्रकावती, ५. गन्धा, ६. सुगन्धा, ७. गन्धिला और ८. गन्धमालिनी । उन क्षेत्रों के मध्य में वर्तमान नगरियों के नाम कहते हैं- १. विजया, २. वैजयन्ती, ३. जयन्ती, ४. अपराजिता, ५. चक्रपुरी, ६. खड्गपुरी, ७. अयोध्या और ८. अवध्या ।
अब, जैसे भरतक्षेत्र में गंगा और सिंधु इन दोनों नदियों से तथा विजयार्ध पर्वत से पाँच म्लेच्छ खण्ड और एक आर्य खण्ड ऐसे छह खण्ड हुए हैं, उसी तरह पूर्वोक्त बत्तीस विदेह क्षेत्रों में गंगा सिंधु समान दो नदियों और विजयार्ध पर्वत से प्रत्येक क्षेत्र के छह खण्ड जानने चाहिए । इतना विशेष है कि इन सब क्षेत्रों में सदा चौथे काल के आदि जैसा काल रहता है । उत्कृष्टता से कोटि पूर्व प्रमाण आयु है और पाँच सौ धनुष प्रमाण शरीर का उत्सेध है । पूर्व का प्रमाण कहते हैं- पूर्व का प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार कोड़ी वर्ष जानना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप में जम्बूद्वीप का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
जैसे, सब द्वीप और समुद्रों में द्वीप और समुद्र की मर्यादा (सीमा) करने वाली आठ योजन ऊँची वज्र की वेदिका (दीवार) है, उसी प्रकार से जम्बूद्वीप में भी है, ऐसा जानना चाहिए । उस वेदिका के बाहर दो लाख-योजन चौड़ा, गोलाकार, शास्त्रोक्त सोलह हजार योजन जल की ऊँचाई (गहराई) आदि अनेक आश्चर्यों सहित लवणसमुद्र है; उसके बाहर चार लाख योजन गोल विस्तार वाला धातकीखण्डद्वीप है । वहाँ पर दक्षिण भाग में लवणोदधि और कालोदधि इन दोनों समुद्रों की वेदिका को छूने वाला, दक्षिण-उत्तर लम्बा, एक हजार योजन विस्तार वाला तथा चार सौ योजन ऊँचा इष्वाकार नामक पर्वत है । इसी प्रकार उत्तर भाग में भी एक इष्वाकार पर्वत है । इन दोनों पर्वतों से विभाजित, पूर्व धातकीखण्ड तथा पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग जानने चाहिए । पूर्व धातकीखण्ड द्वीप के मध्य में चौरासी हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन गहरा छोटा मेरु है । उसी प्रकार पश्चिम धातकीखण्ड में भी एक छोटा मेरु है । जैसे जम्बूद्वीप के महामेरु में भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, गंगा आदि नदी और पद्म आदि हृदों का दक्षिण व उत्तर दिशाओं सम्बन्धी व्याख्यान किया है; वैसा ही इस पूर्व धातकीखण्ड के मेरु और पश्चिम धातकीखण्ड के मेरु सम्बन्धी जानना चाहिए । इसी कारण धातकीखण्ड में जम्बू द्वीप की अपेक्षा संख्या में भरत क्षेत्र आदि दूने होते हैं, परन्तु लम्बाई चौड़ाई की अपेक्षा से दुगुने नहीं हैं । कुल पर्वत तो विस्तार की अपेक्षा ही दुगुने हैं, आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा दुगुने नहीं हैं । उस धातकीखण्डद्वीप में, जैसे चक्र के आरे होते हैं, वैसे आकार के धारक कुलाचल हैं । जैसे चक्र के आरों के छिद्र अन्दर की ओर तो संकीर्ण (सुकड़े) होते हैं और बाहर की ओर विस्तीर्ण (फैले हुए) होते हैं, वैसा ही क्षेत्रों का आकार समझना चाहिए ।
इस प्रकार जो धातकीखण्ड द्वीप है उसको आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदक समुद्र बेढ़े हुए है । उस कालोदक समुद्र के बाहर आठ लाख योजन चलकर पुष्करवर द्वीप के अर्ध भाग में गोलाकार रूप से चारों दिशाओं में मानुषोत्तर नामक पर्वत है । उस पुष्करार्ध द्वीप में भी धातकीखण्ड द्वीप के समान दक्षिण तथा उत्तर दिशा में इष्वाकार दो पर्वत हैं, पूर्व-पश्चिम में दो छोटे मेरु हैं । इसी प्रकार (धातकीखण्ड के समान) भरत आदि क्षेत्रों का विभाग जानना चाहिए । परन्तु जम्बूद्वीप के भरत आदि की अपेक्षा से यहाँ पर संख्या में दूने-दूने भरत आदि क्षेत्र हैं, धातकीखण्ड की अपेक्षा से भरत आदि दूने नहीं हैं । कुल पर्वतों का विष्कम्भ तथा आयाम धातकीखण्ड के कुल पर्वतों की अपेक्षा दुगुना है । दक्षिण में विजयार्ध पर्वत की ऊँचाई का प्रमाण पच्चीस योजन, हिमवत् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन, महाहिमवान् पर्वत की दो सौ योजन, निषध की चार सौ योजन प्रमाण है तथा उत्तर भाग में भी इसी प्रकार उत्सेध प्रमाण है । मेरु के समीप में गजदन्तों की ऊँचाई पाँच सौ योजन है और नील निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । वक्षार पर्वतों की ऊँचाई नदी के निकट तथा अन्त में नील और निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । मेरु को छोड़कर शेष पर्वतों की जो ऊँचाई जम्बूद्वीप में कही है सो ही पुष्करार्द्ध तक द्वीपों में जाननी चाहिए तथा क्षेत्र, पर्वत, नदी, देश, नगर आदि के नाम भी वे ही हैं, जो कि जम्बूद्वीप में हैं । इसी प्रकार दो कोस ऊँची, पाँच सौ धनुष चौड़ी पद्मराग रत्नमयी जो वन आदि की वेदिका है, वह सब द्वीपों में समान है । इस पुष्करार्ध द्वीप में भी चक्र के आरों के आकार समान पर्वत और आरों के छिद्रों के समान क्षेत्र जानने चाहिए । मानुषोत्तर पर्वत के भीतरी भाग में ही मनुष्य निवास करते हैं बाहरी भाग में नहीं । उन मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य के बराबर है । मध्य में मध्यम विकल्प बहुत से हैं तिर्यञ्चों की आयु भी मनुष्यों की आयु के समान है । इस प्रकार असंख्यात द्वीप-समुद्रों से विस्तरित तिर्यग्लोक के मध्य में ढाईद्वीप प्रमाण मनुष्यलोक का संक्षेप से व्याख्यान हुआ ।
अब मानुषोत्तर पर्वत से बाहरी भाग में, स्वयंभूरमण द्वीप के अर्धभाग को बेढ़कर जो नागेन्द्र नामक पर्वत है, उस पर्वत के पूर्व भाग में जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनमें व्यन्तर देव निरन्तर रहते हैं, इस वचनानुसार, यद्यपि व्यन्तर देवों के आवास हैं, तथापि एक पल्यप्रमाण आयु वाले तिर्यञ्चों की जघन्य भोगभूमि भी है, ऐसा जानना चाहिए । नागेन्द्र पर्वत से बाहर स्वयंभूरमण आधे द्वीप और पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र में विदेहक्षेत्र के समान, सदा ही कर्मभूमि और चतुर्थकाल रहता है । परन्तु वहाँ पर मनुष्य नहीं हैं । इस प्रकार तिर्यग्लोक के तथा उस तिर्यक् लोक के मध्य में विद्यमान मनुष्य-लोक के निरूपण द्वारा मध्य लोक का व्याख्यान समाप्त हुआ । मनुष्य लोक में तीन सौ अट्ठानवे (३९८) और तिर्यक् लोक में नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डल द्वीप तथा रुचक द्वीप इन तीन द्वीपों सम्बन्धी क्रमशः बावन, चार, चार अकृत्रिम स्वतन्त्र चैत्यालय जानने चाहिए । (मध्यलोक में सब अकृत्रिम चैत्यालय ४५८ हैं) ।
इसके पश्चात् ज्योतिष्कलोक का वर्णन करते हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तारा ऐसे ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के होते हैं । उनमें से इस मध्य लोक के पृथ्वीतल से सात सौ नब्बे योजन ऊपर आकाश में तारों के विमान हैं, तारों से दस योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं । उससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा के विमान हैं । उसके अनन्तर, त्रिलोकसार कथित क्रमानुसार, चार योजन ऊपर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं । उसके पश्चात् चार योजन ऊपर बुध के विमान हैं । उसके अनन्तर तीन योजन ऊपर शुक्र के विमान हैं । वहाँ से तीन योजन ऊपर बृहस्पति के विमान हैं । उसके पश्चात् तीन योजन पर मंगल के विमान हैं । वहाँ से भी तीन योजन के अन्तर पर शनैश्चर के विमान हैं । सो ही कहा है-
सात सौ नब्बे, दस, अस्सी, चार, चार, तीन, तीन, तीन और तीन योजन ऊपर क्रम से तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर के विमान हैं ।
वे ज्योतिष्क देव ढाईद्वीप में मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए सदा परिभ्रमण करते हैं । निमिष आदि सूक्ष्म व्यवहार काल के समान घटिका, पहर, दिवस आदि स्थूल व्यवहारकाल भी, समय-घटिका आदि विवक्षित भेदों से रहित तथा अनादिनिधन कालाणुद्रव्यमयी निश्चयकाल रूप उपादान से यद्यपि उत्पन्न होता है; तो भी, निमित्तभूत कुम्भकार के द्वारा उपादान रूप मृत्तिकापिण्ड से घट प्रकट होने की तरह, उन ढाईद्वीप में चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमनागमन से यह व्यवहारकाल प्रकट किया जाता है तथा जाना जाता है; इस कारण उपचार से व्यवहार काल ज्योतिष्क देवों का किया हुआ है, ऐसा कहा जाता है । कुम्भकार के चाक के भ्रमण में बहिरंग सहकारी कारण नीचे की कीली के समान, निश्चयकाल तो, उन ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमन रूप परिणमन में बहिरंग सहकारी कारण होता है ।
अब ढाईद्वीपों में जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनकी संख्या बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं, लवणोदक समुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीप में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं, कालोदक समुद्र में ४२ चन्द्रमा और ४२ सूर्य हैं तथा पुष्करार्ध द्वीप में ७२ चन्द्रमा और ७२ ही सूर्य हैं । इसके अनन्तर भरत और ऐरावत में स्थित जम्बूद्वीप के चन्द्र-सूर्य का कुछ थोड़ा-सा विवरण कहते हैं । वह इस तरह है- जम्बूद्वीप के भीतर एक सौ अस्सी और बाहरी भाग में अर्थात् लवणसमुद्र के तीन सौ तीस योजन, ऐसे दोनों मिलकर पाँच सौ दस योजन प्रमाण सूर्य का चार क्षेत्र (गमन का क्षेत्र) कहलाता है । सो चन्द्र तथा सूर्य इन दोनों का एक ही गमन क्षेत्र है । भरतक्षेत्र और बाहरी भाग के चार क्षेत्र में सूर्य के एक सौ चौरासी मार्ग (गली) हैं और चन्द्र के पन्द्रह ही मार्ग हैं ।
उनमें जम्बूद्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन जब दक्षिणायन प्रारम्भ होता है, तब निषध पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य प्रथम उदय करता है । वहाँ पर सूर्य विमान में स्थित निर्दोषपरमात्म-जिनेन्द्र के अकृत्रिम जिनबिम्ब को, अयोध्यानगरी में स्थित भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती प्रत्यक्ष देखकर निर्मल सम्यक्त्व के अनुराग से पुष्पांजलि उछालकर अर्घ देता है । उस प्रथम मार्ग में स्थित भरतक्षेत्र के सूर्य का ऐरावत क्षेत्र के सूर्य के साथ तथा चन्द्रमा का चन्द्रमा के साथ और भरत क्षेत्र के सूर्य चन्द्रमाओं का मेरु के साथ जो अन्तर (फासला) रहता है, उसका विशेष कथन आगम से जानना चाहिए ।
अब "शतभिषा (शतभिषक्), भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र जघन्य हैं । रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद, ये छह नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष १५ नक्षत्र मध्यम है । इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार जो जघन्य, उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्र में कितने दिन सूर्य ठहरता है, सो कहते हैं- एक मुहूर्त में चन्द्र १७६८, सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखण्डों में गमन करते हैं, इसलिए ६७ व ५ (१८३५-१७६८-६७,१८३५-१८३०=५) अधिक भागों से नक्षत्रखण्डों को भाग देने से जो मुहूर्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूर्तों को चन्द्र और सूर्य के आसन्न मुहूर्त जानने चाहिए । अर्थात् एक नक्षत्र पर उतने मुहूर्तों तक चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति जाननी चाहिए ।"
इस प्रकार इस गाथा में कहे हुए क्रम से भिन्न-भिन्न दिनों को जोड़ने से तीन सौ छियासठ दिन होते हैं । जब द्वीप के भीतर से दक्षिण दिशा के बाहरी मार्गों में सूर्य गमन करता है, तब तीन सौ छियासठ दिनों के आधे एक सौ तिरासी दिनों की दक्षिणायन संज्ञा होती है और इसी प्रकार जब सूर्य समुद्र से उत्तर दिशा के अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष १८३ दिनों की उत्तरायण संज्ञा है । उनमें जब द्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन दक्षिणायन के प्रारम्भ में सूर्य प्रथम मार्ग की परिधि में होता है, तब सूर्य-विमान के आतप (धूप) का पूर्व-पश्चिम फैलाव चौरानवे हजार पाँच सौ पच्चीस योजन प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए । उस समय अठारह मुहूर्तों का दिन और बारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । फिर यहाँ से क्रम-क्रम से आतप की हानि होने पर दो मुहूर्तों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन घटता है । यह तब तक घटता है जब तक कि लवणसमुद्र के अन्तिम मार्ग में माघ मास में मकर संक्रान्ति में उत्तरायण दिवस के प्रारम्भ में जघन्यता से सूर्य-विमान के आतप का पूर्व-पश्चिम विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजन प्रमाण होता है । उसी प्रकार इस समय बारह मुहूर्तों का दिन और अठारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । अन्य विशेष वर्णन लोकविभाग आदि से जानना चाहिए ।
मनुष्य क्षेत्र से बाहर ज्योतिष्क-विमानों का गमन नहीं है । वे मानुषोत्तर पर्वत के बाहर पचास हजार योजन जाने पर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्ति क्रम से पहले क्षेत्र को बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । वहाँ प्रथम वलय में एक सौ चवालीस चन्द्रमा तथा सूर्य परस्पर अन्तर (फासले) से स्थित हैं, उसके आगे एक-एक लाख योजन जाने पर इसी क्रमानुसार एक-एक वलय होता है । विशेष यह है कि प्रत्येक वलय में चार-चार चन्द्रमा तथा चार-चार सूर्यों की वृद्धि पुष्करार्ध के बाह्य भाग में आठवें वलय तक होती है । उसके बाद पुष्करसमुद्र के प्रवेश में स्थित वेदिका से पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, प्रथम वलय में, एक सौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्य का जो पहले कथन किया है, उससे दुगुने (दो सौ अट्ठासी) चन्द्रमा व सूर्यों वाला पहला वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक-एक लाख योजन जाने पर एक-एक वलय है । प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्यों की वृद्धि होती है । इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्र की अन्त की वेदिका तक ज्योतिष्क देवों का अवस्थान जानना चाहिए । जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ये ज्योतिष्कविमान अकृत्रिम सुवर्ण तथा रत्नमय जिनचैत्यालयों से भूषित हैं, ऐसा समझना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से ज्योतिष्क लोक का वर्णन समाप्त हुआ ।
अब इसके अनन्तर ऊर्ध्व लोक का कथन करते हैं । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँ से आगे नव ग्रैवेयक विमान हैं । उनके ऊपर नवअनुदिश नामक ९ विमानों का एक पटल है, इसके भी ऊपर पाँच विमानों की संख्या वाला पंचानुत्तर नामक एक पटल है, इस प्रकार उक्त क्रम से वैमानिक देव अवस्थित हैं । यह वार्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदाय से कथन है । आदि में बारह, मध्य में आठ और अन्त में चार योजन प्रमाण गोल व्यासवाली चालीस योजन ऊँची मेरु की चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य के बाल के अग्रभाग प्रमाण के अन्तर से ऋजु विमान है । चूलिका सहित एक लाख योजन प्रमाण मेरु की ऊँचाई का प्रमाण है, उस मान को आदि करके डेढ़ राजू प्रमाण जो आकाश क्षेत्र है वहाँ तक सौधर्म तथा ईशान नामक दो स्वर्ग हैं । इसके ऊपर डेढ़ राजूपर्यन्त सानत्कुमार और माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से अर्धराजू प्रमाण आकाश तक ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर नामक स्वर्गों का युगल है । वहाँ से भी आधे राजू तक लान्तव और कापिष्ट नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से आधे राजूप्रमाण आकाश में शुक्र तथा महाशुक्र नामक स्वर्गों का युगल जानना चाहिए । उसके बाद आधे राजू तक शतार और सहस्रार नामक स्वर्गों का युगल है । उसके पश्चात् आधे राजू तक आनत व प्राणत दो स्वर्ग हैं । तदनन्तर आधे राजू पर्यन्त आकाश तक आरण और अच्युत नामक दो स्वर्ग जानने चाहिए । उनमें से पहले के दो युगलों (४ स्वर्गों) में तो अपने-अपने स्वर्ग के नाम वाले (सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र) चार इन्द्र हैं, बीच के चार युगलों (८ स्वर्गों) में अपने-अपने प्रथम स्वर्ग के नाम का धारक एक-एक ही इन्द्र है (अर्थात् ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग का एक इन्द्र है और वह ब्रह्म इन्द्र कहलाता है । ऐसे ही बारहवें स्वर्ग तक आठ स्वर्गों में चार इन्द्र जानने चाहिए) इनके ऊपर दो युगलों (४ स्वर्गों) में भी अपने-अपने स्वर्ग के नाम के धारक चार इन्द्र होते हैं । इस प्रकार समुदाय से सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र जानने चाहिए । सोलह स्वर्गों से ऊपर एक राजू में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देव हैं । उसके आगे बारह योजन जाने पर आठ योजन मोटी और ढाईद्वीप के बराबर पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली मोक्षशिला है । उस मोक्षशिला के ऊपर घनोदधि, घनवात तथा तनुवात नामक तीन वायु हैं । इनमें से तनुवात के मध्य में तथा लोक के अन्त में केवलज्ञान आदि अनन्त-गुणों सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं ।
अब स्वर्ग के पटलों की संख्या बतलाते हैं । सौधर्म और ईशान इन दो स्वर्गों में इकत्तीस, सानत्कुमार तथा माहेन्द्र में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में चार, लान्तव तथा कापिष्ट में दो, शुक्र-महाशुक्र में एक, शतार-सहस्रार में एक, आनत-प्राणत में तीन और आरण-अच्युत में भी तीन पटल हैं । नव ग्रैवेयकों में नौ, नव अनुदिशों में एक व पंचानुत्तरों में एक पटल है । ऐसे समुदाय से ऊपर-ऊपर ६३ पटल जानने चाहिए । सो ही कहा है सौधर्म युगल में ३१, सानत्कुमार युगल में ७, ब्रह्म युगल में ४, लान्तव युगल में २, शुक्र युगल में १, शतार युगल में १, आनत आदि चार स्वर्गों में ६, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयकों में तीन-तीन, नव अनुदिश में १, पंचानुत्तरों में एक, ऐसे समुदाय से ६३ इन्द्रक होते हैं ।
इसके आगे प्रथम पटल का व्याख्यान करते हैं । मेरु की चूलिका के ऊपर मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विस्तार वाले पूर्वोक्त ऋजु विमान की इन्द्रक संज्ञा है । उसकी चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में, सब द्वीप समुद्रों के ऊपर, असंख्यात योजन विस्तार वाले पंक्तिरूप ६३-६३ विमान हैं; उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है । पंक्ति बिना पुष्पों के समान चारों विदिशाओं में संख्यात व असंख्यात योजन विस्तार वाले जो विमान हैं, उन विमानों की प्रकीर्णक संज्ञा है । इस प्रकार समुदाय से प्रथम पटल का लक्षण जानना चाहिए । उन विमानों में से पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन श्रेणियों के विमान और इन तीनों दिशाओं के बीच में दो विदिशाओं के विमान, ये सब सौधर्म प्रथम स्वर्ग सम्बन्धी हैं तथा शेष दो विदिशाओं के विमान और उत्तर श्रेणी के विमान, वे ईशान स्वर्ग सम्बन्धी हैं । भगवान् द्वारा देखे प्रमाण अनुसार, इस पटल के ऊपर संख्यात तथा असंख्यात योजन जाकर इसी क्रम से द्वितीय आदि पटल हैं । विशेष यह है कि प्रत्येक पटल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में एक-एक विमान घटता गया है, सो यहाँ तक घटता है कि पंचानुत्तर पटल में चारों दिशाओं में एक-एक ही विमान रह जाता है । सौधर्म स्वर्ग आदि सम्बन्धी ये सब विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस अकृत्रिम सुवर्णमय जिन चैत्यालयों से मण्डित हैं, ऐसा जानना चाहिए ।
अब देवों की आयु का प्रमाण कहते हैं- भवन वासियों में दस हजार वर्ष की जघन्य आयु है । व्यन्तरों में दस हजार वर्ष की जघन्य और कुछ अधिक एक पल्य की उत्कृष्ट आयु है । ज्योतिष्क देवों में जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है । चन्द्रमा की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य और सूर्य की एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । शेष ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु आगम के अनुसार जाननी चाहिए । सौधर्म तथा ईशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर है । सानत्कुमार तथा माहेन्द्र देवों में कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दस सागर, लान्तव-कापिष्ठ में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र- महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणत में पूरे बीस ही सागर और आरण-अच्युत में बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर अच्युत स्वर्ग से ऊपर कल्पातीत नव ग्रैवेयकों तक प्रत्येक ग्रैवेयक में क्रमशः बाईस सागर से एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट आयु है, तदनुसार अन्त के ग्रैवेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है । नव अनुदिश पटल में बत्तीस सागर और पंचानुत्तर पटल में तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिए तथा सौधर्म आदि स्वर्गों में जो उत्कृष्ट आयु है, सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त, वह उत्कृष्ट आयु अपने स्वर्ग से ऊपर-ऊपर के स्वर्ग में जघन्य आयु है । (अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्ग में कुछ अधिक दो सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है, वह सानत्कुमार माहेन्द्र में जघन्य है । इस क्रम से सर्वार्थसिद्धि के पहले-पहले जघन्य आयु है ।) शेष विशेष व्याख्यान त्रिलोकसार आदि से जानना चाहिए ।
विशेष - आदि, मध्य तथा अन्तरहित, शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभाव परमात्मदेव में पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं । इस कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चयलोक है अथवा उस निश्चय लोक वाले निज शुद्ध परमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चयलोक है । संज्ञा, तीन लेश्या, इंद्रियों के वश होना, आर्त-रौद्र-ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पाप को देने वाले हैं ।
इस गाथा में कहे हुए विभाव परिणाम आदि सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों के त्याग से और निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है, वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है, शेष व्यवहार से है । इस प्रकार संक्षेप से लोकानुप्रेक्षा का वर्णन समाप्त हुआ ॥१०॥ - अब बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा को कहते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, नीरोग, दीर्घ आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता, क्रोध आदि कषायों से निवृत्ति, ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । कदाचित् काकतालीय न्याय से इन सबके प्राप्त हो जाने पर भी, इनकी प्राप्ति रूप बोधि के फलभूत जो निज शुद्ध आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परम समाधि है, वह दुर्लभ है । शंका- परम समाधि दुर्लभ क्यों है? समाधान- परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीवों में प्रबलता है इसलिए परम-समाधि का होना दुर्लभ है । इस कारण उस परमसमाधि की ही निरन्तर भावना करनी चाहिए क्योंकि उस भावना से रहित जीवों का फिर भी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है-
जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधि को प्राप्त होकर, प्रमादी होता है वह बेचारा संसाररूपी भयंकर वन में चिरकाल तक भ्रमण करता है ।१।
मनुष्यभव की दुर्लभता के विषय में भी कहा है- अशुभ परिणामों की अधिकता, संसार की विशालता और बड़ी-बड़ी योनियों की अधिकता, ये सब बातें मनुष्य योनि को दुर्लभ बनाती है । बोधि व समाधि का लक्षण कहते हैं- पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाती है और उन्हीं सम्यग्दर्शन आदिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । इस प्रकार संक्षेप से दुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ ॥११॥ - अब धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं- संसार में गिरते हुए जीव को उठाकर, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदि द्वारा पूज्य अथवा बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त-गुणरूप मोक्ष पद में जो धरता है वह धर्म है । उस धर्म के भेद कहे जाते हैं- अहिंसा लक्षण वाला, गृहस्थ और मुनि इन लक्षण वाला, उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाला, निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय-स्वरूप अथवा शुद्ध आत्मानुभवरूप मोह-क्षोभरहित आत्म परिणाम वाला धर्म है । परम-स्वास्थ्य-भावना से उत्पन्न व व्याकुलतारहित पारमार्थिक सुख से विलक्षण तथा पाँचों इन्द्रियों के सुखों की वांछा से उत्पन्न और व्याकुलता करने वाले दु:खों को सहते हुए, इस जीव ने ऐसे धर्म की प्राप्ति न होने से नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पति में सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, जलकाय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय व चार इन्द्रिय में दो-दो लाख, देव, नारकी व तिर्यञ्च में चार-चार लाख तथा मनुष्यों में चौदह लाख योनि इस गाथा में कही हुई चौरासी लाख योनियों में, अतीत अनन्त काल तक परिभ्रमण किया है । जब इस जीव को पूर्वोक्त प्रकार के धर्म की प्राप्ति होती है तब राजाधिराज, महाराज, अर्धमण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, गणधरदेव, तीर्थंकर परमदेव के पदों तथा तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप कल्याणक तक अनेक प्रकार के वैभव सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षय अनन्त गुणों के स्थानभूत अरहन्त पद को और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इस कारण धर्म ही परम रस के लिए रसायन, निधियों की प्राप्ति के लिए निधान, कल्पवृक्ष, कामधेनु गाय और चिन्तामणि रत्न है । विशेष क्या कहें, जो जिनेन्द्रदेव के कहे हुए धर्म को पाकर दृढ़ बुद्धिधारी (सम्यग्दृष्टि) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है-
जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट धर्म से जो प्रतिबोध को प्राप्त हुए वे धन्य हैं तथा जिन आत्मानुभव में संलग्न बुद्धि वालों ने धर्म को ग्रहण किया वे सब धन्य हैं ।१।
इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥१२॥
इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण वाली, अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मतत्त्व के अनुचिन्तन संज्ञा (नाम) वाली और आस्रवरहित शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणतिरूप संवर की कारणभूत बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन समाप्त हुआ ।
अब परीषहजय का कथन करते हैं- १. क्षुधा, २. प्यास, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक (डांस-मच्छर), ६. नग्नता, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या (बैठना), ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध,१४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कारपुरस्कार, २०. प्रज्ञा (ज्ञान का मद), २१. अज्ञान और २२. अदर्शन ये बाईस परीषह जानने चाहिए । इन क्षुधा आदि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि में समतारूप परम सामायिक के द्वारा तथा नवीन शुभ-अशुभ कर्मों के रुकने और पुराने शुभ-अशुभ कर्मों की निर्जरा के सामर्थ्य से इस जीव का, निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से, विचलित नहीं होना, सो परीषहजय है ।
अब चारित्र का कथन करते हैं- शुद्ध उपयोग लक्षणात्मक निश्चय रत्नत्रयमयी परिणतिरूप आत्मस्वरूप में जो आचरण या स्थिति, सो चारित्र है । यह तारतम्य भेद से पाँच प्रकार का है । तथा सब जीव केवलज्ञानमय हैं, ऐसी भावना से जो समता परिणाम का होना सो सामायिक है । अथवा परम स्वास्थ्य के बल से युगपत् समस्त शुभ, अशुभ संकल्प-विकल्पों के त्यागरूप जो समाधि (ध्यान), वह सामायिक है । अथवा निर्विकार आत्म-अनुभव के बल से राग द्वेष परिहार (त्याग) रूप सामायिक है अथवा शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से आर्त-रौद्र-ध्यान के त्याग स्वरूप सामायिक है अथवा समस्त सुख-दुखों में मध्यस्थ भावरूप सामायिक है । अब छेदोपस्थापन का कथन करते हैं- जब एक ही साथ समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब “समस्त हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति सो व्रत है" इन पाँच प्रकार भेद विकल्प रूप व्रतों का छेद होने से राग आदि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ा कर निज शुद्ध आत्मा में अपने को उपस्थापन करना छेदोपस्थापना है । अथवा छेद अर्थात् व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से और उसके साधकरूप बहिरंग व्यवहार प्रायश्चित्त से निज आत्मा में स्थित होना, छेदोपस्थापन है । परिहार विशुद्धि का कथन करते हैं --
जो जन्म से ३० वर्ष सुख से व्यतीत करके वर्ष पृथक्त्व (८ वर्ष) तक तीर्थंकर के चरणों में प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व को पढ़कर तीनों संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करता है ।१।
इस गाथा में कहे क्रम अनुसार मिथ्यात्व, राग आदि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके विशेष रूप से जो आत्म-शुद्धि अथवा निर्मलता, सो परिहारविशुद्धि चारित्र है । अब सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं- सूक्ष्म अतीन्द्रिय निज शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से सूक्ष्मलोभ नामक साम्पराय-कषाय का पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण (क्षय) जहाँ होता है सो सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है । अब यथाख्यात चारित्र कहते हैं- जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध-स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया, सो यथाख्यात चारित्र है ।
अब गुणस्थानों में सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र का कथन करते हैं- प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक चार गुणस्थानों में सामायिक- छेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र- प्रमत्त, अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होता है । सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र- एक सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान में ही होता है । यथाख्यात चारित्र- उपशान्तकषाय, क्षीण कषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन इन चार गुणस्थानों में होता है । अब संयम के प्रतिपक्षी (संयमासंयम और असंयम) का कथन करते हैं- दार्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमारूप संयमासंयम नाम वाला देश चारित्र, एक पंचम गुणस्थान में ही जानना चाहिए । असंयम-मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत-सम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार चारित्र का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
इस प्रकार भावसंवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय के साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के निरूपण करने वाले जो वाक्य हैं, वे पापास्रव के संवर में कारण जानने चाहिए । जो व्यवहार रत्नत्रय से साध्य शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य-पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।
यहाँ सोम नामक राजसेठ कहता है कि हे भगवन्! इन व्रत, समिति आदिक संवर के कारणों में संवरानुप्रेक्षा ही सारभूत है, वही संवर कर देगी फिर विशेष प्रपंच से क्या प्रयोजन? भगवान् (नेमिचन्द्र) उत्तर देते हैं- मन, वचन, काय इन तीनों की गुप्तिस्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनि के तो उस संवर अनुप्रेक्षा से ही संवर हो जाता है; किन्तु उसमें असमर्थ जीवों के अनेक प्रकार से संवर का प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रत आदि का कथन करते हैं ।
क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानियों के ६७ और वैनयिकों के ३२, ऐसे कुल मिलाकर तीन सौ तिरेसठ भेद पाखण्डियों के हैं ॥१॥
योग से प्रकृति और प्रदेश तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है और जिसके कषाय का उदय नहीं है तथा कषायों का क्षय हो गया है, ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल (एक समय वाला) बन्ध स्थिति का कारण नहीं है ॥२॥॥३५॥
इस प्रकार संवर तत्त्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ ।
अब सम्यग्दृष्टि जीव के संवर-पूर्वक निर्जरा तत्त्व को कहते हैं --
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