प्रभाचन्द्र : संस्कृत
देहेष्वात्मानं योजयतश्च बहिरात्मनो दुर्विलसितोपदर्शनपूर्वकमाचार्योऽनुशयं कुर्वन्नाह -- जाताः प्रवृत्ताः। काः? पुत्रभार्यादिकल्पनाः। क्व? देहेषु। कया? आत्मधिया। क्व आत्मधीः? देहेष्वेव। अयमर्थः -- पुत्रादिदेहं जीवत्वेन प्रतिपद्यमानस्य मत्पुत्रो भार्येतिकल्पना विकल्पा जायन्ते। ताभिश्चानात्मनीयाभिरनुपकारिणीभिश्च सम्पत्तिं पुत्रभार्यादिविभूत्यतिशयं आत्मानो मन्यते जगत्कर्तृ हा हतं नष्टं स्वस्वरूप-परिज्ञानाद् बहिर्भूतं जगत् बहिरात्मा प्राणिगणः ॥१४॥ उत्पल हुई - प्रवर्ती । क्या (प्रवर्ती) ? पुत्र-स्त्री आदि सम्बन्धी कल्पनाएँ । किसके विषय में ? शरीरों में । किस कारण से ? आत्मबुद्धि के कारण से । किसमें आत्मबुद्धि ? शरीरों में ही । तात्पर्य यह है कि पुत्रादि के देह को जीवरूप माननेवाले को, 'मेरा पुत्र, स्त्री' - ऐसी कल्पनाएँ (विकल्प) होते हैं । अनात्मरूप और अनुपकारक, ऐसी उन कल्पनाओं से पुत्र-भार्यादिरूप विभूति के अतिशय-स्वरूप सम्पत्ति को जगत अपनी मानता है । अरे! स्व-स्वरूप के परिज्ञान से रहित, बहिरात्मरूप जगत - प्राणिगण घाता जा रहा है ॥१४॥ अब, कहे हुए अर्थ का उपसंहार करके, आत्मा में अन्तरात्मा का अनुप्रवेश दर्शाते हुए कहते हैं :- |