प्रभाचन्द्र : संस्कृत
इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मन्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं दर्शयन्नाह -- मूलं कारणं। कस्य? संसारदुःखस्य। काऽसौ? देहएवात्मधीः। देहः कायः स एवात्म इति धीः। यत एवं ततस्तस्मात्कारणात्। एनां देहएवात्मबुद्धिं त्यक्त्वा अन्तः प्रविशेत् आत्मनि आत्मबुद्धिं कुर्यात् अन्तरात्मा भवेदित्यर्थः। कथं भूतः सन्? बहिरव्यापृतेन्द्रियः बहिर्बाह्यविषयेषु अव्यापृतान्यप्रवृत्तानीन्द्रियाणि यस्य ॥१५॥ मूल, अर्थात् कारण । किसका ? संसार-दुःख का । वह (कारण) क्या ? देह में ही आत्मबुद्धि, अर्थात् देह (काया), वही आत्मा - ऐसी बुद्धि (मान्यता), वह । इस कारण इसका, अर्थात् देह में ही आत्मबुद्धि का त्याग करके, अन्तर में प्रवेश करना - आत्मा में आत्मबुद्धि करना - अन्तरात्मा होना -- ऐसा अर्थ है । कैसा होकर ? बाह्य में अव्यावृत्त इन्द्रियों वाला होकर, अर्थात् बाह्यविषयो में जिसकी इन्द्रियाँ अव्यावृत्त (अप्रवत्त) हुई हैं (रुक गयी हैं - अटकगयी हैं) । वैसा होकर ॥१५॥ अन्तरात्मा, आत्मा में अहंबुद्धि करता हुआ अलब्ध (पूर्व में नहीं प्राप्त ऐसे) लाभ से सन्तोष पाकर अपनी बहिरात्मदशा का स्मरण करके विषाद (खेद) करता है । वह कहते हैं :- |