प्रभाचन्द्र : संस्कृत
अन्तरात्मा आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां बहिरात्मावस्था -- मत्त आत्मस्वरूपात्। च्युत्वा व्यावृत्य। अहं पतितः अत्यासक्त्या प्रवृत्तः। क्व? विषयेषु। कैः कृत्वा? इन्द्रियद्वारैः इन्द्रियमुखैः। ततस्तान् विषयान् प्रपद्य ममोपकारका एते इत्यतिगृह्यानुसृत्य। मां आत्मानं। न वेद न ज्ञातवान् कथं? अहमित्युल्लेखेन अहमेवाहं न शरीरादिकमित्येवं तत्त्वतो न ज्ञातवानित्यर्थः। कदा? पुरा पूर्वं अनादिकाले ॥१६॥ अपने से अर्थात् आत्मस्वरूप से विस्मृत होकर (पीछे हटकर), मैं पतित हुआ, अर्थात् अति आसक्ति से प्रवर्ता । कहाँ (प्रवर्ता )? विषयों में । किसके द्वारा? इन्द्रियोंरूप द्वारों से-इन्द्रिय-मुख से । फिर उन विषयों को प्राप्त करके, वे मेरे उपकारक हैं - ऐसा समझकर, उन्हें अतिपने ग्रहणकर - अनुसरण कर मैंने स्वयं के आत्मा को देखा नहीं, जाना नहीं । किस प्रकार से (नहीं जाना) ? 'मैं' ऐसे उल्लेख से मैं ही स्वयं (आत्मा) हूँ; शरीरादिरूप नहीं - इस प्रकार तत्त्वतः (वास्तव में) मैंने जाना नहीं -- ऐसा अर्थ है । कब ? पूर्व में - अनादि काल से ॥१६॥ अब, आत्मा को जानने का उपाय बतलाते हुए कहते हैं : - |