
प्रभाचन्द्र :
जिस शुद्ध स्व-संवेद्यरूप के अभाव से, अर्थात् उसको अनुपलब्धि में - अप्राप्ति में, मैं सो रहा था, अर्थात् यथावत् पदार्थ-परिज्ञान का अभाव जिसका लक्षण है - ऐसी निद्रा में मैं गाढ़ घिरा हुआ था (लिपटा हुआ था); और जिसके सद्भाव में, अर्थात् जिसके तत्स्वरूप के सद्भाव में - प्राप्ति में (जिस स्वरूप का अनुभव होने पर) मैं जागृत हुआ - विशेषरूप से जागृत हुआ, अर्थात् मैं यथावत् स्वरूप के परिज्ञानस्वरूप से परिणमित हुआ, ऐसा अर्थ है । तत्स्वरूप किस प्रकार का है? वह अतीन्द्रिय है, अर्थात् इन्द्रियजन्य नहीं है, इन्द्रियग्राह्य नहीं है और वचन-अगोचर, अर्थात् शब्द-विकल्पों से अगोचर होने से (शब्दों द्वारा कहने में नहीं आता होने से) यह या वह स्वरूपादिरूप से कहा जा सके, वैसा नहीं है । तो ऐसे प्रकार का स्वरूप कहाँ से सिद्ध होता है? - सो कहते हैं - 'वह स्व-संवेद्यस्वरूप, अर्थात् वह उक्त प्रकार का स्व-संवेदन से ग्राह्यस्वरूप, वह मैं हूँ' ॥२४॥ उस स्वरूप का स्व-संवेदन करनेवाले को रागादि का विशेष क्षय होने से, कथंचित् भी शत्रु-मित्र की व्यवस्था (कल्पना) नहीं रहती - यह दर्शाते हुए कहते हैं :- |