क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यत: बोधात्मानं तत: कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रिय: ॥25॥
जब अनुभव अपना करूँ, हों अभावरागादि । मैं ज्ञाता, मेरे नहीं, कोई अरि-मित्रादि ॥२५॥
अन्वयार्थ : [यत:] क्योंकि [बोधात्मान] शुद्ध ज्ञानस्वरूप [मां] मुझ आत्मा का [तत्त्वतः प्रपश्यत] वास्तव में अनुभव करानेवाले के [अत्र एव] इस जन्म में ही [रागाद्य] राग, द्वेष, क्रोध, मान, मायादिक दोष [क्षीयन्ते] नष्ट हो जाते हैं; [ततः] इसलिए [मे] मेरा [न कश्रित्] न कोई [शत्रु:] शत्रु है [न च] और न कोई [प्रिय:] मित्र है ।
Meaning : (Upon experiencing the transcendental self) My attachment and aversion are stilled, and I perceive myself from the absolute point of view. Hence, I have neither foes nor friends.
प्रभाचन्द्र वर्णी
प्रभाचन्द्र :
यहाँ ही नहीं कि केवल आगे (अन्य जन्म में) ही, परन्तु इस जन्म में ही (वे) क्षय को प्राप्त होते हैं । वे कौन ? रागादि, अर्थात् राग जिसके आदि में हैं, वैसे द्वेषादि (दोष) । क्या करते हुए वे क्षीण होते हैं ? तत्त्वतः (परमार्थपने) मुझे देखते - (अनुभवते) । कैसे मुझे ? बोधात्मा, अर्थात् ज्ञानस्वरूप (ऐसा मुझे) । यथावत् आत्मा का अनुभव करने पर रागादि क्षीण होते हैं; इस कारण से न कोई मेरा शत्रु है और (न) कोई मेरा प्रिय, अर्थात मित्र है ॥२५॥
भले ही तुम अन्य किसी के शत्रु-मित्र न हो, तो भी अन्य कोई तो तुम्हारा शत्रु-मित्र होगा न? - ऐसी आशङ्का की है, उसका समाधान करते हैं :-