+ आत्मा स्वयं अपना गुरु, कोई और नहीं -
नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत: ॥75॥
आत्मा ही भव-हेतु है, आत्मा ही निर्वाण ।
यों निश्चय से आत्म का, आत्मा ही गुरु जान ॥७५॥
अन्वयार्थ : [आत्मा एव] आत्मा ही [आत्मानं] आत्मा को [जन्म नयति] देहादिक में दृढात्मभावना के कारण, जन्म-मरणरूप संसार में भ्रमण कराता है [च] और [निर्वाणमेव नयति] आत्मा में ही आत्मबुद्धि के प्रकर्षवश, मोक्ष प्राप्त कराता है; [तस्मात्] इसलिए [परमार्थत:] निश्चय से [आत्मनः गुरु:] आत्मा का गुरु [आत्मा एव] आत्मा ही है, [अन्य: न अस्ति] दूसरा कोई गुरु नहीं है ।
Meaning : The soul takes itself to rebirth or liberation. Hence, from the absolute viewpoint, the soul is its own guru and needs no other.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

जन्म (संसार के प्रति दौड़ता है) - प्राप्त कराता है । किसको ? आत्मा को । कौन वह ? देहादि में दृढ आत्म-भावनावश आत्मा ही (जन्म प्राप्त कराता है); और अपने आत्मा में ही आत्मबुद्धि के प्रकर्ष सद्भाव से आत्मा ही आपको निर्वाण के प्रति ले जाता है, क्योंकि वास्तव में आत्मा, आत्मा का गुरु है; परमार्थ से अन्य कोई गुरु नहीं है । व्यवहार से वह हो तो भले हो ॥७५॥

देह में आत्म-बुद्धि करनेवाला (बहिरात्मा), मरण नजदीक आने पर क्या करता है? वह कहते हैं --