सुने बहुत आतम-कथा, मुँह से कहता आप । किन्तु भिन्न अनुभूति बिन, नहीं मुक्ति का लाभ ॥८१॥
अन्वयार्थ : आत्मा का स्वरूप [अन्यत:] उपाध्याय आदि गुरुओं के मुख से [कामं] बहुत ही [शृण्वन्नपि] सुनने पर तथा [कलेवरात्] अपने मुख से [वदन्नपि] दूसरों को बतलाते हुए भी [यावत्] जब तक [आत्मानं] आत्मस्वरूप की [भिन्नं] शरीरादि पर-पदार्थों से भिन्न [न भावयेत्] भावना नहीं की जाती, [तावत्] तब तक [मोक्षभाक् न] यह जीव, मोक्ष का पात्र नहीं होता ।
Meaning : Despite hearing of it constantly from others, despite speaking about it oneself, unless one experiences the soul to be different from the body, one cannot be a candidate for liberation.
प्रभाचन्द्र वर्णी
प्रभाचन्द्र :
अन्य (उपाध्यायादि) के पास से बहुत ही सुनने पर भी, अर्थात् 'शरीर से आत्मा भिन्न है' - ऐसा श्रवण करने पर भी; उनसे (शरीरादि से) वह (आत्मा) भिन्न है - ऐसा स्वयं अन्य के प्रति (दूसरों को) कहने पर भी, जब तक 'शरीर से आत्मा भिन्न है' - ऐसी भावना न करे, तब तक जीव, मोक्षभाजन- मोक्षपात्र नहीं हो सकता ॥८१॥
इस भावना में प्रवृत्त होकर उसको (अन्तरात्मा को) क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं --