
प्रभाचन्द्र :
इस प्रकार से, अर्थात् उक्त प्रकार से इस भिन्न और अभिन्न आत्मस्वरूप की, नित्य, अर्थात् सर्वदा भावना करनी । इससे क्या होता है? वह पद - मोक्षस्थान (प्राप्त होता है) । वह (पद) कैसा है? वाणी के अगोचर है, अर्थात् वचनों द्वारा नहीं कहा जा सके, वैसा (अनिर्वचनीय) है । उसे किस प्रकार प्राप्त करता है? परमार्थ से स्वत: ही (अपने आप ही), आत्मा से ही (प्राप्त करता है) परन्तु गुरु आदि बाह्य निमित्त द्वारा नहीं । जहाँ से, अर्थात् प्राप्त हुए उस पद से (मोक्षस्थान से) वह वापस नहीं आता, अर्थात् फिर से संसार में नहीं भ्रमता ॥९९॥ आत्मा है - ऐसा सिद्ध हो तो उसे उस पद की प्राप्ति सम्भव है परन्तु वह आत्मा चार तत्त्वों के समूहरूप शरीर से भिन्न, अन्य तत्स्वरूप सिद्ध नहीं होता - ऐसा चार्वाक मानते हैं और सर्वदा स्वरूप की उपलब्धि का सम्भव होने से, आत्मा सदा ही मुक्त है - ऐसा सांख्यमत है । उनके प्रति कहते हैं -- |