
प्रभाचन्द्र :
चितत्त्व, अर्थात् चेतना-स्वरूप तत्त्व यदि भूत ही हों, अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायुरूप भूतों में से उत्पन्न हुआ मानने में आवे तो निर्वाण अयत्न-साध्य रहे अथवा यत्न से निर्वाण साधने योग्य न रहे । इस शरीर के परित्याग से, विशिष्ट अवस्था की प्राप्ति-योग्य आत्मा का उनके चार्वाक के) मत में अभाव है क्योंकि (वे) मरणरूप (शरीर के) विनाश से उत्तरकाल में आत्मा का अभाव (मानते) हैं । सांख्यमत में भूत ही, अर्थात् सहज भवन सो भूत / शुद्धात्मतत्त्व - उसमें उत्पन्न हुआ, वह । उसके स्वरूप के संवेदकपने से जिसका आत्मलाभ प्राप्त हुआ है - ऐसे प्रकार का चितत्त्व यदि हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य हो, अर्थात् यत्न से / ध्यान के अनुष्ठानादि से निर्वाण साधने योग्य नहीं रहता, क्योंकि नित्य शुद्धात्मस्वरूप के अनुभव में सर्वदा ही आत्मा की निरुपाय (अयत्नसाध्य) मुक्ति प्रसिद्ध है । अथवा (इस श्लोक में) अयत्न इत्यादि वचन हैं, वे निष्पन्न इतर योगियों की अपेक्षा से हैं । वहाँ निष्पन्न योगी की अपेक्षा से चितत्त्व यदि भूत हो, अर्थात् स्वभाव ही हो, (यहाँ भूत शब्द को स्वभाव के अर्थ में समझना) अर्थात् मन, वाणी, काया, इन्द्रियों आदि से अविक्षिप्त आत्मस्वरूपभूत, अर्थात् उसमें उत्पन्न हुआ हो, अर्थात् उसके स्वरूप के संवेदकपने से जिसका आत्मलाभ प्राप्त हुआ है - ऐसे प्रकार का चितत्त्व यदि हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य है, क्योंकि वैसे प्रकार के आत्म-स्वरूप का अनुभव करनेवाले के कर्मबन्ध का अभाव होने से, निर्वाण बिना प्रयास के सिद्ध है । अथवा अन्य प्रकार से प्रारब्ध योगी की अपेक्षा से भूत ही चितत्त्व न हो तो, योग द्वारा स्वरूप संवेदनात्मक चित्तवृत्ति के निरोध के प्रकर्ष अभ्यास से निर्वाण होता है; इसलिए क्वचित् भी अवस्था विशेष में, अर्थात् दुर्धर अनुष्ठान में अथवा छेदन-भेदनादि में योगियों को दु:ख नहीं होता क्योंकि आनन्दात्मक स्वरूप के संवेदन में उनको उनसे उत्पन्न होते दु:ख के वेदन का अभाव है ॥१००॥ मरणरूप विनाश से उत्तरकाल में (विनाश के पश्चात्) आत्मा का अभाव सिद्ध होवे तो उसका सर्वदा अस्तित्व किस प्रकार सिद्ध हो? -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं :-- |