स्वदेहेहप्रमितश्चायं, ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः ।
ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा ॥5॥
अन्वयार्थ : [अयं] यह [स्वदेहप्रमितः] अपने शरीर के बराबर है [च] और [सः] वह आत्मा [ज्ञानमात्रः अपि] ज्ञान मात्र भी [नैव] नहीं है, [ततः] इस कारण [सर्वगत:] सर्वगत होता हुआ भी [अयं] यह [विश्वव्यापी न सर्वथा न] सर्वथा समस्त जगत् में व्यापने वाला नहीं है ॥५॥