+ जीव सहज ही वाच्य-अवाच्य -
नावक्तव्यः स्वरूपाद्यैः, निर्वाच्यः परभावतः ।
तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो, नापि वाचामगोचरः ॥7॥
अन्वयार्थ : वह आत्मा [स्वरूपाद्यैः] स्वरूप आदि की अपेक्षा से [अवक्तव्यः न] अवक्तव्य नहीं (वक्तव्य है) [परभावतः] अन्य अविवक्षित धर्मों की अपेक्षा से [निर्वाच्यः] आत्मा अवक्तव्य है [तस्मात्] इसकारण (आत्मा) [एकान्ततः] एकान्त से (सर्वथा) [न वाच्या] न वक्तव्य है [नापि] न ही [वाचामगोचरः] अवक्तव्य है ॥७॥