+ चारित्र का स्वरूप -
दर्शनज्ञान पर्यायेषूत्तरोत्तर भाविषु ।
स्थिरमालम्बनं यद्वा, माध्यस्थ्यं सुख-दुःखयोः ॥13॥
ज्ञातादृष्टाऽहमेकेकोऽहं, सुखे दुःखे न चापरः।
इतीदं भावनादाढ्र्यं, चारित्रमथवा परम् ॥14॥
अन्वयार्थ : [उत्तरोत्तरभाविषु] क्रम-क्रम से होने वाली [दर्शनज्ञानपर्यायेषु] सम्यग्दशर्न और सम्यग्ज्ञान की पर्याय में [स्थिरम्] स्थिरता का [आलम्बनम्] आलम्बन [यद्वा] अथवा [सुखदुःखयोः] सुख-दुःख में [माध्यस्थ्यं] माध्यस्थता (उदासीनता); [अहं] मैं [एकः] एकमात्र [ज्ञाता-दृष्टा] जानने-देखने वाला हूँ [च] और [अपरः] कोई दूसरा [सुखे-दुःखे न] सुखी-दुःखी नहीं करता [इति इदं] इसप्रकार की यह [भावनादाढ्र्यं] भावना की दृढ़ता [अथवा] या [परम्] उत्कृष्ट (स्वरूप-लीनता) [चारित्रम्] सम्यक्चारित्र है ।