
ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै, निर्मोहो भव सर्वतः।
उदासीनत्वमाश्रित्य, तत्त्वचिन्ता परो भव ॥18॥
अन्वयार्थ : [ततः त्वं] इस कारण तू [दोषनिर्मुक्त्यै] दोष-रहित होने के लिए [निर्मोहो भव सर्वतः] सभी-प्रकार से ममत्व-रहित होकर [उदासीनत्वम् आश्रित्य] उदासीनता का आश्रय लेकर [तत्वचिन्तापरः भव] आत्म-तत्त्व के चिन्तवन में तत्पर हो ।