
तथाप्यतितृष्णावान्, हन्त! मा भूस्तवात्मनि ।
यावतृष्णा प्रभूतिस्ते तावन्मोक्षं न यास्यसि ॥21॥
अन्वयार्थ : [हन्त!] हे आत्मन्! [तथापि] ऐसा होने पर भी [त्वम् आत्मनि] तुम अपने विषय में भी [अति-तृष्णावान्] अत्यन्त तृष्णा से युक्त [मा भूः] मत होना [यावत्] जब-तक [ते] तुम्हारे [तृष्णा प्रभूतिः] तृष्णा की भावना उत्पन्न होती रहेगी [तावत्] तब-तक [मोक्षं न यास्यसि] मोक्ष नहीं पा सकोगे ।