+ व्यवहार-रत्नत्रय की सार्थकता -
जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु ।
तं परियाणहि जीव तुहुँ जेँ परु होहि पवित्तु ॥14॥
यद् ब्रूते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ॥१४॥
अन्वयार्थ : [जीव व्यवहारनयः यत्] हे जीव, व्यवहारनय जो [दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों को [ब्रूते तत्] कहता है, उस (व्यवहार रत्नत्रय) को [त्वं परिजानीहि येन] तू जान, जिससे कि [परः पवित्रः भवसि] उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र होवे ।
Meaning : The Vyavahara Naya (point of view) maintains that one should know well the Samyaka Darshan (right belief), Samyaka Jnana (right knowledge) and Samyaka Charitra (right conduct), so that one might become pure,

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ भेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गं दर्शयति -

जं इत्यादि । [जं] यत् [बोल्लइ] ब्रूते । कोऽसौ कर्ता । [ववहारु-णउ] व्यवहारनयः । यत् किं ब्रूते । [दंसणु णाणु चरित्तु] सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं तं पूर्वोक्तं भेदरत्नत्रयस्वरूपं [परियाणहि] परि समन्तात् जानीहि । [जीव तुहुं] हे जीव त्वं कर्ता । [जें] येन भेदरत्नत्रयपरिज्ञानेन [परु होहि] परः उत्कृष्टो भवसि त्वम् । पुनरपि किंविशिष्टस्त्वम् । [पवित्तु] पवित्रः सर्वजनपूज्य इति । तद्यथा । हे जीव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपनिश्चयरत्नत्रयलक्षणनिश्चयमोक्षमार्गसाधकं व्यवहार-मोक्षमार्गं जानीहि । त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतो भविष्यसि । परंपरया पवित्रः परमात्मा भविष्यसिइति । व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गस्वरूपं कथ्यते । तद्यथा । वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादिसम्यक्-श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानरूपो व्यवहारमोक्षमार्गः निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपो निश्चय-मार्गः । अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः । अत्राह शिष्यः । निश्चय-मोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भवतीति । अत्रपरिहारमाह । भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति । अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चय-मोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्परूपसाधको भवति, निर्विकल्प-समाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः ॥१४॥
सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्गविषये संवाद-गाथामाह —
जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं ।
सवियप्पं सासवयं णिरासवंविगय संकप्पं ॥
एवं पूर्वोक्तै कोनविंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये निश्चय-व्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादनरूपेण सूत्रत्रयं गतम् ।


आगे भेद-रत्नत्रय-स्वरूप, व्यवहार वह परम्परा मोक्ष का मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं -

हे जीव, तू तत्त्वार्थ का श्रद्धान, शास्त्र का ज्ञान, और अशुभ क्रियाओं का त्यागरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र व्यवहार मोक्ष-मार्ग को जान, क्योंकि ये निश्चय रत्नत्रय रूप निश्चय मोक्ष-मार्ग के साधक हैं, इनके जानने से किसी समय परम-पवित्र परमात्मा हो जायगा । पहले व्यवहार रत्नत्रय की प्राप्ति हो जावे, तब ही निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति हो सकती है, इसमें संदेह नहीं है । जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे वे पहले व्यवहार रत्नत्रय को पाकर निश्चयरत्नत्रय रूप हुए । व्यवहार साधन है, और निश्चय साध्य है । व्यवहार और निश्चय मोक्ष-मार्ग का स्वरूप कहते हैं -- वीतराग सर्वज्ञदेव के कहे हुए छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, इनका श्रद्धान, इनके स्वरूप का ज्ञान और शुभ-क्रिया का आचरण, यह व्यवहार मोक्ष-मार्ग है, और निज शुद्ध-आत्मा का सम्यक् श्रद्धान स्वरूप का ज्ञान, और स्वरूप का आचरण यह निश्चय मोक्ष-मार्ग है । साधन के बिना सिद्धि नहीं होती, इसलिये व्यवहारके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती । यह कथन सुनकर शिष्य ने प्रश्न किया कि हे प्रभो; निश्चय मोक्ष-मार्ग जो निश्चय रत्नत्रय वह तो निर्विकल्प है, और व्यवहार रत्नत्रय विकल्प-सहित है, सो वह विकल्प-दशा निर्विकल्पपने की साधन कैसे हो सकती है ? इस कारण उसको साधक मत कहो । अब इसका समाधान करते हैं । जो अनादिकाल का यह जीव विषय-कषायों से मलिन हो रहा है, सो व्यवहार-साधन के बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व अव्रत कषायादिक की क्षीणता से देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा करे, तत्त्वों का जानपना होवे, अशुभ-क्रिया मिट जावे, तब वह अध्यात्म का अधिकारी हो सकता है । जैसे मलिन कपड़ा धोने से रँगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता, इसलिये परम्परा मोक्ष का कारण व्यवहार-रत्नत्रय कहा है । मोक्ष का मार्ग दो प्रकारका है, एक व्यवहार, दूसरा निश्चय, निश्चय तो साक्षात् मोक्ष-मार्ग है, और व्यवहार परम्परा से है । अथवा सविकल्प निर्विकल्प के भेद से निश्चय मोक्ष-मार्ग भी दो प्रकार का है । जो मैं अनंतज्ञानरूप हूँ, शुद्ध हूँ, एक हूँ, ऐसा 'सोऽहं' का चिंतवन है, वह तो सविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग है, उसको साधक कहते हैं, और जहाँ पर कुछ चिंतवन नहीं है, कुछ बोलना नहीं है, और कुछ चेष्टा नहीं है, वह निर्विकल्प-समाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ ॥१४॥

इसी कथनके बारे में द्रव्यसंग्रह की साक्षी देते हैं । 'माचिट्ठह..' इत्यादि । सारांश यह है, कि हे जीव, तू कुछ भी काय की चेष्टा मत कर, कुछ बोल भी मत, मौन से रहे, और कुछ चिंतवन मत कर । सब बातों को छोड, आत्मा में आपको लीनकर, यह ही परमध्यान है ।

श्रीतत्त्वसार में भी सविकल्प-निर्विकल्प निश्चय मोक्ष-मार्ग के कथन में यह गाथा कही है कि 'जं पुण सगयं..' इत्यादि । इसका सारांश यह है कि जो आत्म-तत्त्व है, वह भी सविकल्प-निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का है, जो विकल्प-सहित है, वह तो आस्रव-सहित है, और जो निर्विकल्प है, वह आस्रव-रहित है ।

इस तरह पहले महास्थल में अनेक अंतस्थलों में से उन्नीस दोहों के स्थल में तीन दोहों से निश्चय व्यवहार मोक्ष-मार्ग का कथन किया ।