
अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु ।
संवर-णिज्जर जाणि तुहुं सयल-वियप्प-विहीणु ॥38॥
तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः ।
संवरनिर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ॥३८॥
अन्वयार्थ : [मुनिः] मुनि [यावंतं कालं] जब तक [आत्मस्वरूपे निलीनः] आत्म-स्वरूप में लीन [तिष्ठति] रहता है उसे, [त्वं] तू [सकलविकल्पविहीनम्] समस्त विकल्प समूहों से रहित [संवरनिर्जरा] संवर निर्जरा [जानीहि] जान ।
Meaning : So long as a Muni becoming free from all Vikalpas remains immersed in his own Swarupa , he does Samvara and Nirjara all that time.
श्रीब्रह्मदेव