+ आत्मदर्शी का मरण भी शुभ और अज्ञानी का पुण्य करना भी अशुभ -
वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि ।
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ॥58॥
वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व ।
मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ॥५८॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [निजदर्शनाभिमुखः] जो अपने सम्यग्दर्शन के सन्मुख होकर [मरणमपि] मरण को भी [लभस्व वरं] पावे, तो अच्छा है, परन्तु [जीव] हे जीव, [निजदर्शनविमुखः] अपने सम्यग्दर्शन से विमुख हुआ [पुण्यमपि] पुण्य भी [करिष्यसि] करे [मा वरं] तो अच्छा नहीं ।
Meaning : I prefer Samyak Darshana (true belief), even if it cause my death, but I do not like even to obtain Punya (good Karmas) with the aid of Mithiyatva (false belief).

  श्रीब्रह्मदेव