
वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु ।
पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु ॥66॥
वन्दतां निन्दतु प्रतिक्रामतु भावः अशुद्धो यस्य ।
परं तस्य संयमोऽस्ति नैव यस्मात् मनः शुद्धिर्न तस्य ॥६६॥
अन्वयार्थ : [वंदतु निंदतु प्रतिक्रामतु] वंदना करो, निंदा करो, प्रतिक्रमणादि करो, लेकिन [यस्य] जिसके [अशुद्धो भावः] अशुद्ध परिणाम हैं, [तस्य] उसके [परं] नियम से [संयमः] संयम [नैव अस्ति] नहीं हो सकता, [यस्मात्] क्योंकि [तस्य] उसके [मनःशुद्धिः न] मन की शुद्धता नहीं है ।
Meaning : No one whose heart is full of Vandna, Ninda or Pratikramana can be endowed with Sanyama without which Moksha is simply out of the question.
श्रीब्रह्मदेव