+ शुद्ध-उपयोग ही धर्म -
भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु ।
चउ-गइ-दुक्खहँ जा धरइ जीउ पडंतउ एहु ॥68॥
भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा गृह्णीथाः ।
चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ॥६८॥
अन्वयार्थ : [विशुद्धः भावः] (मिथ्यात्व रागादिसे रहित) शुद्ध परिणाम है, वही [आत्मीयः] अपना होने से [धर्मं भणित्वा] धर्म समझकर [गृह्णीथाः] अंगीकार करो; [यः] जो (आत्मधर्म) [चतुर्गतिदुःखेभ्यः] चारों गतियों के दुःखों से [पतंतम्] संसार में पड़े हुए [इमम् जीवं] इस जीव को निकालकर [धरति] (आनंद स्थान में) रखता है ।
Meaning : That which takes out a Jiva (soul) from the ocean of Chatur-gati-roop Dukha (misery and pain involved in the four forms or types of life), is one's own Vishuddha Bhava (pure, real nature) which is also called Dharma; hence this Vishuddha Bhava should be adopted.

  श्रीब्रह्मदेव