
देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति ।
णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ॥73॥
देवः निरञ्जन एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः ।
ज्ञानविहीना जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ॥७३॥
अन्वयार्थ : [निरंजनः] मोह-राग-द्वेष रहित [देवः] सर्वज्ञ वीतरागदेव [एवं भणति] ऐसा कहते हैं, कि [ज्ञानेन मोक्षः] ज्ञान से ही मोक्ष है, [न भ्रांतिः] इसमें संदेह नहीं है और [ज्ञानविहीनाः] ज्ञान से रहित [जीवाः चिरं] जीव बहुत काल तक [संसारं भ्रमंति] संसार में भटकते हैं ।
Meaning : The Niramjana Deva has said that the Jiva gets Moksha by Vitraga , Nirvikalapa and Sva-Samvadana Jnana ; he who is devoid of such Jnana wanders about in the Samsara for long.
श्रीब्रह्मदेव