+ आत्मज्ञानी के पर-द्रव्य में प्रीती नहीं -
तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ ।
दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥76॥
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः ।
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ॥७६॥
अन्वयार्थ : [जीव तत्] हे जीव, वह [निजज्ञानम् एव] आत्म-तत्त्व का परिज्ञान ही [नापि भवति] नहीं है [येन रागः प्रवर्धते] जिससे पर-द्रव्य में प्रीति बढ़े, [दिनकरकिरणानां पुरतः] सूर्य की किरणों के आगे [तमोरागः] अन्धकार का फैलाव [किं विलसति] कैसे शोभायमान हो सकता है ?
Meaning : That which produces Raga (desire or love) and Dvesha (hatred) is not Jnana (true knowledge); as by the uprising of sun, darkness disappears, so by the manifestation of Jnana, Raga and Dvesha are destroyed.

  श्रीब्रह्मदेव