+ आत्मज्ञानी को विषय-भोग में प्रीती क्यों नहीं? -
अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु ।
तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु ॥77॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानिनां अन्यन्न सुन्दरं वस्तु ।
तेन न विषयेषु मनो रमते जानतां परमार्थम् ॥७७॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं] आत्मा को [मुक्त्वा] छोड़कर [ज्ञानिनां] ज्ञानियों को [अन्यद् वस्तु] अन्य वस्तु [ सुंदरं न] अच्छी नहीं लगती, [तेन] इसलिये [परमार्थम् जानतां] परमात्म-पदार्थ को जाननेवालों का [मनः] मन [विषयाणां] विषयों में [न रमते] नहीं लगता ।
Meaning : To a Jnani (Sage) nothing other than A tma Swarup (pure, real nature of the soul) is pleasing, or agreeable ; those alone whose minds do not become fascinated by sensual enjoyment know the Parmartha (the highest goal).

  श्रीब्रह्मदेव