+ द्रव्यलिंगी अपने-आप को ठगता है -
केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण ।
सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण ॥90॥
केनापि आत्मा वञ्चितः शिरो लुञ्चित्वा क्षारेण ।
सकला अपि संगा न परिहृता जिनवरलिङ्गधरेण ॥९०॥
अन्वयार्थ : [केनापि] जिस किसी ने [जिनवरलिंगणधरेण] जिनवर का भेष धारण करके [क्षारेण] भस्म से [शिरः] शिर के केश [लुंचित्वा] लौंच किये, (उखाड़े) लेकिन [सकला अपि संगाः] सब परिग्रह [न परिहृताः] नहीं छोड़े, उसने [आत्मा] अपनी आत्मा को ही [वंचितः] ठग लिया ।
Meaning : He who pulls out his hair to become a Digambara (a saint who gives up even the last vestige of cloth), but does not give up Parigraha, that is, Raga and Dvesha, such a saint only deceives himself.

  श्रीब्रह्मदेव