
जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ठ-परिग्गह लेंति ।
छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ॥91॥
ये जिनलिङ्गं धृत्वापि मुनय इष्टपरिग्रहान् लान्ति ।
छर्दिं कृत्वा ते एव जीव तां पुनः छर्दिं गिलन्ति ॥९१॥
अन्वयार्थ : [ये मुनयः] जो मुनि [जिनलिंगं धृत्वापि] जिनलिंग को ग्रहण करके भी [इष्टपरिग्रहान्] इच्छित परिग्रहों को [लांति] ग्रहण करते हैं, [जीव] हे जीव, [ते एव] वे ही [छर्दिं कृत्वा] वमन करके [पुनः] फिर [तां छर्दिं गिलंति] उस वमन को पीछे निगलते हैं ।
Meaning : The saint who having renounced the last strip of cloth and having given up all Parigraha again takes a thing which appears agreeable to him, eats his own vomit.
श्रीब्रह्मदेव