
अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गुरुयउ गंथहि तत्थु ।
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु ॥93॥
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः गुरुकं ग्रन्थैः तथ्यम् ।
स परमार्थेन जिनो भणति नैव बुध्यते परमार्थम् ॥९३॥
अन्वयार्थ : [य एव मुनिः] जो भी मुनि [ग्रंथैः] परिग्रह से [आत्मानं] अपने को [गुरकं] महंत [मन्यते] मानता है, [तथ्यम्] निश्चय से [सः] वह [परमार्थेन] वास्तव में [परमार्थम्] परमार्थ को [नैव बुध्यते] नहीं जानता, [जिनः भणति] ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं ।
Meaning : The saint who thinks himself great simply by the acquisition of worldly possessions is devoid of the knowledge of Parmartha.; thus has the Jinendra Deva said on the Ideal.
श्रीब्रह्मदेव