
जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि ।
देह-विभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ॥101॥
जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव ।
देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [जीवानां] जीवों के [दर्शनं ज्ञानं] दर्शन और ज्ञान [लक्षणं] निज-लक्षण को [य एव] जो कोई [जानाति] जानता है, [जीव] हे जीव, [स एव ज्ञानी] वही ज्ञानी [देहविभेदेन] देह के भेद से [तेषां भेदं] उन जीवों के भेद को [किं मन्यते] क्या मान सकता है ?
Meaning : One who knows that Darshana and Jnana are the Lakshana of souls, cannot, by seeing differences only in their bodies, make any distinction between them.
श्रीब्रह्मदेव