
जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव ।
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव ॥105॥
यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान् ।
तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौः ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [यः सकलानपि जीवान्] जो सब ही जीवों को [एकस्वभावान्] एक स्वभाववाले [नैव मन्यते] नहीं जानता, [तस्य] उसके [समः भावः] समभाव [न तिष्ठति] नहीं रहता, [यः] जो [भवसागरे] संसार-समुद्र के लिए [नौः] नाव के समान है ।
Meaning : He who does not believe all the souls as Ektyabhava-Roopa , does not attain to Sambhava . Sambhava is like a boat made to cross the ocean of Samsara with.
श्रीब्रह्मदेव