
जो सम-भावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु ।
चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ॥109॥
यः समभावाद् बाह्यः तेन सह मा कुरु संगम् ।
चिंतासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [समभावात्] समभाव से [बाह्य] बाहर हैं [तेन सह] उनके साथ [संगम् मा कुरु] संग मत कर [चिंतासागरे पतसि] चिंतारूपी समुद्र में पड़ेगा, [परं अन्यदपि] केवल और भी [अंगः दह्यते] शरीर दाह को प्राप्त होगा ।
Meaning : Thou shouldst not associate with one who is devoid of Sambhava , because his society will throw thee into the ocean of anxiety and will burn thy body through uneasiness.
श्रीब्रह्मदेव