
जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं ।
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ॥111-ब॥
यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविघतपः फलं महद्विपुलम् ।
ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ॥१११-ब॥
अन्वयार्थ : [भो साधो] हे योगी, [यदि] जो [द्वादशविधतपः फलं] तप का फल [महद्विपुलं] बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष [इच्छसि] चाहता है, [ततः] तो [मनोवचनयोः] मन, वचन और [काये] काय से [भोजनगृद्धिं] भोजन की लोलुपता को [विवर्जयस्व] त्याग दे ।
श्रीब्रह्मदेव