
जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ ।
णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥115॥
योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति ।
स्नेहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ॥११५॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [स्नेहं] स्नेह को [परित्यज] छोड़, [स्नेहः] क्योंकि स्नेह [भद्रः न भवति] अच्छा नहीं है, [स्नेहासक्तं] स्नेह में लगा हुआ [सकलं जगत्] समस्त संसारी जीवों को [दुःखं सहमानं] दुःख सहते हुए [पश्य] देख ।
Meaning : Give up attachment; it is of no good. All the pain in the three worlds is due to attachment.
श्रीब्रह्मदेव