
जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु ।
कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिँ दिट्ठु ॥123॥
जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम् ।
कर्मायत्तं कृत्रिमं आगमे योगिभिः द्रष्टम् ॥१२३॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [गृहं] घर, [परिजनं] परिवार, [तनुः] शरीर [इष्टम्] और मित्रादि को [आत्मीयं] अपने [मा जानीहि] मत जान, क्योंकि [आगमे] परमागम में [योगिभिः] योगियों ने [दृष्टम्] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं] कर्मों के आधीन हैं, और [कृत्रिमं] विनाशीक है ।
Meaning : O Soul! Do not regard thy house, family, relations, body, or friends as thy own; they are merely the product of thy Karmas ; Saints having Shastras for their eyes have perceived them thus.
श्रीब्रह्मदेव