
मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु ।
तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महंत्तु ॥124॥
मोक्षं न प्राप्नोषि जीव त्वं गृहे परिजनं चिन्तयन् ।
ततः वरं चिन्तय तपः एव तपः प्राप्नोषि मोक्षं महान्तम् ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [जीव त्वं] हे जीव, तू [गृहं परिजनं] घर, परिवार वगैरह की [चिन्तयन्] चिंता करता हुआ [मोक्षं न प्राप्नोषि] मोक्ष नहीं पाएगा, [ततः] इसलिये [वरं] उत्तम [तपः एव तपः] तप का ही बारम्बार [चिंतय] चिंतवन कर, [महांतम् मोक्षं] श्रेष्ठ मोक्ष को [प्राप्नोषि] पाएगा ।
Meaning : O Soul ! By thinking of thy house, relations, and the like, thou canst not get Moksha; therefore apply thy mind to Tapa , so that thou mayst obtain Moksha.
श्रीब्रह्मदेव