+ इन्द्रिय विजयी ही ध्यानी -
सो जोइउ जो जोगवइ दंसणु णाणु चरित्तु ।
होयवि पंचहँ बाहिरउ झायंतउ परमत्थु ॥137-अ॥
स योगी यः पालयति (?) दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
भूत्वा पञ्चभ्यः बाह्यः ध्यायन् परमार्थम् ॥१३७-अ॥
अन्वयार्थ : [स योगी] वही ध्यानी है, [यः] जो [पंचभ्यः बाह्यः] पंचेंद्रियों से बाहर (अलग) [भूत्वा] होकर [परमार्थम्] निज परमात्मा का [ध्यायन्] ध्यान करता हुआ [दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय को [पालयति] पालता है, रक्षा करता है ।

  श्रीब्रह्मदेव