+ मन को इन्द्रियों के विषयों में जाने से रोक -
जोइय विसमी जोय-गइ मणु संठवण ण जाइ ।
इंदिय-विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ॥137॥
योगिन् विषमा योगगतिः मनः संस्थापयितुं न याति ।
इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ॥१३७॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [योगगतिः] ध्यान की गति [विषमा] महाविषम है, क्योंकि [मनः] चित्त [संस्थापयितुं न याति] स्थिरता को नहीं प्राप्त होता क्योंकि [इंद्रियविषयेषु एव] इन्द्रिय-विषयों में ही [सुखानि] सुख मान रहा है, इसलिये [तत्र एव] उन्हीं विषयों में [पुनः पुनः] फिर फिर [याति] जाता है ।
Meaning : O Yogin ! Difficult is the path of Yoga, the mind can not be controlled with ease; it runs after the pleasures of senses.

  श्रीब्रह्मदेव